वो कौन था, कहाँ से आया, कुछ भी मालूम
नहीं, महत रूप में वो कोई काया विहीन
था, मनुष्य था या कोई परग्रही दूत,
सभी तर्क-वितर्क के उस पार
कदाचित कोई अवधूत,
एक हथेली में थी
अग्नि शिखा,
दूसरे
पर
थामे हुए समस्त ब्रह्माण्ड की व्यथा, वो
सब कुछ उजाड़ कर जैसे आत्म सुख में
अंतर्लीन था, वो कौन था, कहाँ से
आया, कुछ भी मालूम नहीं,
महत रूप में वो कोई
काया विहीन
था। उस
की
बंद आँखों में थी एक अजीब सी मुस्कान,
ओंठों के किनारे अंतहीन नीरवता,
वक्षस्थल पर दूर तक प्रसारित
कोई भस्मरंगी आसमान,
रेत के घर पैरों से
बिखरा कर
जैसे
कोई शिशु पाता है एक अपरिभाषित ख़ुशी,
ठीक उसी तरह ये कौन है जो जलगृह
बनाकर डुबाता है बारम्बार, इस
दहन काल में जो अदृश्य
परछाइयों से ढकता है
देह प्राण, कहने
को वो छाया -
हीन
था, वो कौन था, कहाँ से आया, कुछ भी
मालूम नहीं, महत रूप में वो कोई
काया विहीन
था।
* *
- - शांतनु सान्याल
21 अप्रैल, 2021
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जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं--
श्री राम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
--
मित्रों पिछले तीन दिनों से मेरी तबियत ठीक नहीं है।
खुुद को कमरे में कैद कर रखा है।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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