सभी चेहरे हैं ऋतु अनुचर, बदल जाएंगे
अपना रास्ता हवाओं के अभिमुख,
फिर भी सांझ उतरेगी हमेशा की
तरह, और खींच जाएगी
तुम्हारी पलकों में
कहीं महीन सी
एक सुरमयी
रेखा,
जीवन बटोर लेगा अपने हिस्से का बचा
खुचा सुख, सभी चेहरे हैं ऋतु अनुचर,
बदल जाएंगे अपना रास्ता
हवाओं के अभिमुख।
एक ही जीवन
में नहीं है
संभव
सभी
प्रश्नों का समाधान, चिर दहन के मध्य
ही छुपे रहते हैं वृष्टि वन के अभियान,
सुख दुःख के स्रोत यूँ ही बहते
रहेंगे अनंतकाल तक,
कभी ख़त्म न
होगा, ये
धूप
छांव का लुकछुप, सभी चेहरे हैं ऋतु
अनुचर, बदल जाएंगे अपना
रास्ता हवाओं के
अभिमुख।
* *
- - शांतनु सान्याल
17 अप्रैल, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
सुख दुःख के स्रोत यूँ ही बहते
जवाब देंहटाएंरहेंगे अनंतकाल तक,
कभी ख़त्म न
होगा, ये
धूप
छांव का लुकछुप, बेहतरीन सृजन 👌👌
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-04-2021) को चर्चा मंच "ककड़ी खाने को करता मन" (चर्चा अंक-4040) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना।।।।।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना....
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंएक ही जीवन में नहीं है संभव सभी प्रश्नों का समाधान। बहुत अच्छी अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएं