02 अप्रैल, 2021

सेहन की धूप - -

सेहन की धूप की तरह, कांच की खिड़कियों
से, धूसर ज़मीं पे, अभी अभी उतरा हूँ,
किसी और को तुमने देखा होगा,
उजालों में कहीं दूर बहते हुए,
या शाम के धुंधलके में
कहीं उभरता हुआ
पश्चिमस्थ
सितारा,
मैं
ख़ुद के ता'रूफ़ से हूँ बेख़बर, सोचता हूँ कौन
हूँ, क्या हूँ, कांच की खिड़कियों से, धूसर
ज़मीं पे, अभी अभी उतरा हूँ। चेहरे
और मुखौटे के दरमियां, ख़्वाब
और हक़ीक़त के बीच, एक
अमूर्त सा रेखा हूँ, जिसे
कोई क़ैद कर न
सका अपने
मोह के
क़फ़स में, अपने आसमां का कोई उन्मुक्त
परिंदा हूँ, मैं ख़ुद के ता'रूफ़ से हूँ बेख़बर,
सोचता हूँ कौन हूँ, क्या हूँ। इस स्रोत
को बांधने की कोशिशें हैं बेकार,
न जाने किस, साहिल जा
लगे, हंगामाख़ेज़
लहरें, मुझे
मालूम
ही
नहीं, कोई गहरी नदी हूँ, या बेलगाम कोई
दरिया हूँ, न बनाओ मुझे, उम्र की
लम्बी लकीर अपने हथेलियों
में कहीं, अफ़सोस न हो
तुम्हें कि ख़्यालों
में अभी तक
मैं ज़िंदा
हूँ,
जिसे कोई क़ैद कर न सका अपने मोह के
क़फ़स में, अपने आसमां का कोई
उन्मुक्त सा परिंदा हूँ।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

8 टिप्‍पणियां:

  1. ख़ुद के ता'रूफ़ से हूँ बेख़बर, सोचता हूँ कौन
    हूँ, क्या हूँ, कांच की खिड़कियों से, धूसर
    ज़मीं पे, अभी अभी उतरा हूँ
    खुद को नगण्य न समझें ... भावों को बखूबी लिखा है ...

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  2. जिसे कोई क़ैद कर न सका अपने मोह के
    क़फ़स में, अपने आसमां का कोई
    उन्मुक्त सा परिंदा हूँ।------ बहुत बहुत सुन्दर

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