आकाश है वही पूर्वकालीन, हाशिए में
कहीं छूट गए उजालों के ठिकाने,
पत्थरों के मध्य राह तलाशते
हैं छूटे हुए जल स्रोत,
दहकता हुआ सा
लगे है बांस
वन,
वैनगंगा के किनारे, किस क्षितिज डोर
पर जा बैठा है मुनिया का झुण्ड,
गाए जाएं गीत बेगाने,
आकाश है वही
पूर्वकालीन,
हाशिए
में कहीं छूट गए उजालों के ठिकाने। -
महादेव की पहाड़ियों में बसते हैं
कुछ बचपन के उजड़े गांव,
कुछ अरण्य लकीरों
में आज भी
भटकती
हैं
कितनी कहानियां अनसुने अनजाने,
फिर लौट आएंगे पलाशरंगी दिन,
फिर सजेगी नदी किनारे
जलज पक्षियों की
महफ़िल, हम
भी कहीं
आस -
पास मिल जाएंगे किसी और रूप में
कदाचित, पुनः लिखे जाएंगे पूर्व
जन्म के अफ़साने, आकाश
है वही पूर्वकालीन,
हाशिए में कहीं
छूट गए
उजालों के ठिकाने।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 अप्रैल, 2021
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२७-०४-२०२१) को 'चुप्पियां दरवाजा बंद कर रहीं '(चर्चा अंक-४०५०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंक्या खूब लिखा हैं आपने। पढ़कर बहुत बढ़िया लगा..
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति 👌👌
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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