इक अजीब सा खिंचाव है ज़िन्दगी,
दूर जितना भी जाना चाहें, हम
उतना ही ख़ुद को मोह
जाल में उलझता
पाएं, मुक्त
करने
की
चाह में क्रमशः डूबता जाए, गहन
से गहनतम अतल की ओर
ये अस्तित्व हमारा,
अदृश्य गोंद
की तरह
हैं
लिपटे हुए स्पृहा के घोल, जितना
ख़ुद को छुड़ाएं हम, उतना ही
उस से लिपटता जाएं,
दूर जितना भी
जाना चाहें,
हम
उतना ही ख़ुद को मोह जाल में - -
उलझता पाएं। वो प्रेम है या
जीने की अनबुझ कोई
तृषाग्नि, जितना
भूलना चाहें
उतना
ही
हम स्वयं को उस के क़रीब पाएं,
उन अंतरंग पलों में करने को
कुछ होता नहीं, घुटनों
के बल तब रेंगता
है अंदर का
आदिम
सरीसृप, समुद्र, आकाश, आलोक
सम्मेलन के अतिक्रम, तब
तुम्हारा अस्तित्व कर
जाता है मुझे पूर्ण
छायाच्छन्न,
हर तरफ
होती
है
अदृश्य कांटेदार सीमान्त, जीवन
उन भूमिगत पलों में आख़िर
जाए भी तो कहाँ जाए,
अदृश्य रस्साकशी
में उलझ के
रह जाए
सभी
उन्मुक्त भावनाएं, दूर जितना - -
भी जाना चाहें, हम उतना
ही ख़ुद को मोह जाल
में उलझता
पाएं।
* *
- - शांतनु सान्याल
10 अप्रैल, 2021
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जवाब देंहटाएं--
सत्य कहूँ तो हम चर्चाकार भी बहुत उदार होते हैं। उनकी पोस्ट का लिंक भी चर्चा में ले लेते हैं, जो कभी चर्चामंच पर झाँकने भी नहीं आते हैं। कमेंट करना तो बहुत दूर की बात है उनके लिए। लेकिन फिर भी उनके लिए तो धन्यवाद बनता ही है निस्वार्थभाव से चर्चा मंच पर टिप्पी करते हैं।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 11 अप्रैल 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंइक अजीब सा खिंचाव है ज़िन्दगी,
जवाब देंहटाएंदूर जितना भी जाना चाहें, हम
उतना ही ख़ुद को मोह
जाल में उलझता
पाएं,
बस ज़िन्दगी भर चलती रहती यही खींच तान ... गहन प्रस्तुति ...
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसत्य को रेखांकित करती सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंकमाल का सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
बधाई
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएं