ऊँचे खम्बों में लटकते हैं कहीं सपनों
के विज्ञापन, बिखरा हूँ मैं उसी
के नीचे कहीं, उपभुक्त
किताबों की तरह,
तुम्हारा दर्द
है गहरा,
सोम -
रस से बुझ जाए शायद, जीर्ण पृष्ठों
में तलाशता हूँ मैं दिनयापन,
ऊँचे खम्बों में लटकते हैं
कहीं सपनों के
विज्ञापन।
पास
तुम्हारे खोने को कुछ भी नहीं, तुम
पा चुके समयोपरि, तुम्हारा
मन बहता है मुहाने
की ओर समुद्र
को पाने,
हम
खोजते हैं बैठ किनारे, डूबे हुए कुछ
रौशनी के दर्पण, ऊँचे खम्बों में
लटकते हैं कहीं सपनों के
विज्ञापन। तुम्हारी
रातें, करती हैं
अनगिनत
ग्रह -
नक्षत्र से बातें, मैं तह करता हूँ - -
क्रमशः घातें - प्रतिघातें, शेष
प्रहर जोगी है कोई, उतार
फेंकता है सभी छद्म -
अपनापन, ऊँचे
खम्बों में
लटकते हैं कहीं सपनों के विज्ञापन।
इस शहर के अंतिम छोर में
कहीं आज भी है मौजूद,
समय का एक टूटा
हुआ परकोटा,
जहाँ से
हो
कर जाती है एक पगडण्डी, सुदूर - -
खंडित तारों के देश, कदाचित
जहाँ कोई नहीं चाहेगा
अस्तित्व का
सत्यापन,
ऊँचे
खम्बों में लटकते हैं कहीं सपनों के
विज्ञापन।
* *
- - शांतनु सान्याल
09 अप्रैल, 2021
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१०-०४-२०२१) को 'एक चोट की मन:स्थिति में ...'(चर्चा अंक- ४०३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय मन को छूने वाली रचना
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसुंदर।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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