किस से कहें अपनी व्यथा, खड़े हैं सामने
कुछ प्रणम्य चेहरे और कुछ पुरातन
पत्थर के स्तम्भ, सिंहासन पर
हैं पसरे हुए बिसात और
पासा, हलक पार
नहीं निकलते
उपालम्भ,
ख़ुद
ही उठा लो बिखरा हुआ अस्तित्व अपना,
कोई नहीं है आसपास, जो कर सके
युद्धारम्भ, खड़े हैं सामने कुछ
प्रणम्य चेहरे, और कुछ
पुरातन पत्थर के
स्तम्भ। छंद
विहीन हैं
सभी
अंग प्रत्यंग, उतरता जाए सुबह से शाम
ख़्वाबों का अंगरखा, स्तुतिपाठक
हैं खड़े पंक्तिबद्ध, इस जनपद
का जीवन है, अपने आप
में अनोखा, सवाल
से पहले हैं सभी
जवाब यहाँ
हाजिर,
काश, कोई तोड़ पाता महाधिराज का
विश्व विजयी दम्भ, ख़ुद ही उठा
लो बिखरा हुआ अस्तित्व
अपना, कोई नहीं है
आसपास, जो
कर सके
युद्धारम्भ - -
* *
- - शांतनु सान्याल
06 अप्रैल, 2021
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जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंख़ुद
जवाब देंहटाएंही उठा लो बिखरा हुआ अस्तित्व अपना,
कोई नहीं है आसपास, जो कर सके
युद्धारम्भ
सबको अपने युद्ध खुद ही करने पड़ते हैं .... सुन्दर अभिव्यक्ति .
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत बहुत सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंBahut sundar rachana aur sundar abhivyakati
जवाब देंहटाएंabhar!
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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