03 अप्रैल, 2021

विहंगम दृश्य - -

सभी दौड़े जा रहे हैं बेतहाशा, जंगल की ओर,
वृद्ध युवा, स्त्री पुरुष और शिशु, बढ़ रहे हैं
संकरी घुमावदार पगडंडियों से, पहाड़ी
शीर्ष की ओर, देखना है उन्हें
सुदूर तलहटी में बसा
हुआ सुनहरा
शहर !
या रूपकथाओं का स्वर्ण मृग, या बढ़ रहे हैं
सभी किसी अज्ञात दलदल की ओर,
सभी दौड़े जा रहे हैं बेतहाशा,
जंगल की ओर। स्लेटी
देह पर कोई गोद
गया है महुवा
का पेड़ !
उठा
रही है ज़िन्दगी, आंगन में बिखरे हुए सूखे
पत्तियों के ढेर, शून्य में तकते हैं सभी
तुमड़ी, टंगिया और झुलसी हुई
समय की बेल, चलो फिर
चलें, मृगजल की
तलाश में
उसी
सुलगती हुई मंज़िल की ओर, सभी दौड़े -
जा रहे हैं बेतहाशा, जंगल की ओर।
ये किस तरह का है निर्वासन,
कैसी है बेबसी, कोई नहीं
जानता, खुल के
हँसने की
चाह
में बस गुज़र गई, जैसे तैसे तथाकथित ये
ज़िन्दगी, नंगे पाँव, डामर की तपती
सड़क, रेल की पटरियों में बिखरे
हुए फटे चप्पल, चादर की
छोर खींचता हुआ वो
मासूम बचपन,
सभी कुछ,
सभी
को, कहाँ याद रहता है, लोग भूलते नहीं
दिखाना लेकिन सोने का हिरण,
लोग चले जा रहे हैं फिर भी
उसी रास्ते, जहाँ हर
किसी ने है लूटा
उन्हें चंद -
रोटियों  
के
वास्ते, कहाँ राहत है जिस्म ओ जां को, -
गुज़रना है उसे एक अभिशाप से
दूसरे गरल की ओर, सभी
दौड़े जा रहे हैं बेतहाशा,
जंगल की
ओर।

* *
- - शांतनु सान्याल
 



 

18 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना आज शनिवार ३ अप्रैल २०२१ को शाम ५ बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-04-2021) को   "गलतफहमी"  (चर्चा अंक-4026)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

    जवाब देंहटाएं
  3. अज्ञात दलदल की ओर बढ़ रहे सब । अच्छी प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  4. हमेशा की तरह प्रभावशाली व गूढ़ रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय ।।।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बहुत श्लाघनीय प्रभावोत्पाद्क रचना

    जवाब देंहटाएं

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past