05 अप्रैल, 2021

विलुप्त प्रतिबिम्ब - -

काग़ज़ी फूलों की भीड़ में मुरझाने का
सबब नहीं होता, इत्र में डूबो कर
जितना चाहे बिखेरो, शब्दों
के बूंद, हर हाल में वो
लेकिन, ख़ुश्बुओं
का अदब
नहीं होता, काग़ज़ी फूलों की भीड़ में
मुरझाने का सबब नहीं होता।
जिस्म का फ्रेम टूट ही
जाएगा एक दिन,
कांच के पृष्ठ
पर चाहे
जितनी ख़ूबसूरत तुम ग़ज़ल लिखो,
हर एक आह लेकिन असली
शलभ नहीं होता, काग़ज़ी
फूलों की भीड़ में
मुरझाने का
सबब
नहीं होता। हाड़ मांस का चौखट है
अपनी जगह, दहलीज़ पार
की दुनिया में हैं बहुत
कुछ अनछुआ,
कुछ दर्द
बूढ़ा
देते हैं उम्र ढलने से पहले, लौटा दे
वही बिम्ब पुराना हज़ार चाहतों
वाला, समय के पास रंग
बदलने का मौलिक
कलप नहीं
होता,
हर एक आह, लेकिन असली - -
शलभ नहीं
होता।

* *
- - शांतनु सान्याल

15 टिप्‍पणियां:


  1. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    06/04/2021 मंगलवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......


    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

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  2. जिस्म का फ्रेम टूट ही
    जाएगा एक दिन,
    कांच के पृष्ठ
    पर चाहे
    जितनी ख़ूबसूरत तुम ग़ज़ल लिखो,
    हर एक आह लेकिन असली
    शलभ नहीं होता, ...जीवन सत्य को रेखांकित करती सुंदर रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  3. जीवन के मार्मिक सत्यों का सटीकता से अवलोकन करती भावपूर्ण रचना शांतनु जी | सादर शुभकामनाएं|

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  4. काग़ज़ी
    फूलों की भीड़ में
    मुरझाने का
    सबब
    नहीं होता।

    वाह क्या बात है ... बहुत खूब .

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह क्या बात है, बहुत ही खूबसूरत रचना, बधाई हो

    जवाब देंहटाएं

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