भीगे पृष्ठतल पर सिर्फ रह जाते हैं कुछ
जलशब्द, लौट जाते हैं प्रवासी हंस,
सुदूर अपने देश, कुछ धूसर
मेघ के अतिरिक्त महा
शून्य सा रह जाता
है आकाश पथ,
उभरता है
रोज़
की तरह आदिम ध्रुव तारा, झुलसे हुए
दिन के पास, नहीं होता कहने के
लिए कुछ भी विशेष, केवल
रह जाते हैं कुछ जलशब्द,
लौट जाते हैं प्रवासी
हंस, सुदूर अपने
देश। रात
आती
है
कराहती हुई, सुनसान रास्तों में कोई
नहीं होता जो बढ़ा सके दुआओं
वाले हाथ, वटवृक्ष के नीचे
अब नहीं जलता कोई
भी चिराग़, सूने
पड़े हैं दूर तक
सभी मठ
और
मज़ार, चुप हैं पृथ्वी और चन्द्रविहीन
आकाश, गहन निशीथ स्थिर है
अपनी जगह ले के अंतिम
निःश्वास, सुदूर हार्न
बजाता हुआ
गुज़रा
है
अभी अभी एम्बुलेंस, भीगे पृष्ठतल पर
सिर्फ रह जाते हैं कुछ जलशब्द,
लौट जाते हैं प्रवासी हंस,
सुदूर अपने
देश।
* *
- - शांतनु सान्याल
19 अप्रैल, 2021
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बेहद हृदयस्पर्शी सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंविचारों का अच्छा सम्प्रेषण किया है
आपने इस रचना में।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२१-०४-२०२१) को 'प्रेम में होना' (चर्चा अंक ४०४३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
दिल को स्पर्श करते, वर्तमान हालातों को चित्रित करते भाव !
जवाब देंहटाएंमार्मिक दिल को छूने वाली रचना , प्रवासियों की वेदना , सम सामयिक
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी सृजन,सादर नमन आपको
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएं