01 अप्रैल, 2021

निःसंग पथिक - -

बख़िया उधेड़ जाए मौन आरसी, सीने से
फिसलता जाए सभी गेरुआ रंग, वो
कहीं मिला भी या नहीं जिसे
तुम ढूंढते रहे आजीवन,
काश, उसे छू पाते
जो हमेशा
रहा
तुम्हारे अंतरंग, सीने से फिसलता जाए
सभी गेरुआ रंग। उतर गए सभी
लबादे, बिम्ब करता रहा दीर्घ
अट्टहास, बुझ गए सभी
धूप - धूनी, निःशब्द
लौट आए सभी
मंत्रोच्चार,
बजता
रहा
एकतारा, अपनी जगह एकाकी, एक -
शून्य दराज़ के सिवा, कुछ न था
हमारे पास, उतर गए सभी
लबादे, बिम्ब करता रहा
दीर्घ अट्टहास। कौन
किसे ले डूबा
या तो
नदी
जाने, या फिर सूरज को हो उसका पता,
पुनः सी रहा हूँ मैं स्मृति चादर,
जबकि घिस चुके हैं सभी
किनार, कुछ अमूल्य
क्षण उभर आते
हैं पैबंदों के
पार, जा
चुके सभी अपने अपने घर, जा चुकी - -
द्रुतगामी रेल, सुनसान पटरियों
में जीवन चला जा रहा है
सुदूर अरण्य अंधकार
की ओर, कोई भी
नहीं है उसके
संग, काश,
उसे
छू पाते जो हमेशा रहा तुम्हारे अंतरंग !

* *
- - शांतनु सान्याल


 

 
 

26 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 02-04-2021) को
    "जूही की कली, मिश्री की डली" (चर्चा अंक- 4024)
    पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद.


    "मीना भारद्वाज"

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  2. सी रहा हूँ मैं स्मृति चादर,
    जबकि घिस चुके हैं सभी
    किनार, कुछ अमूल्य
    क्षण उभर आते
    हैं पैबंदों के
    पार,
    आत्म मंथन सा करती रचना ...

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 01 अप्रैल 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. सुनसान पटरियों
    में जीवन चला जा रहा है
    सुदूर अरण्य अंधकार
    की ओर, कोई भी
    नहीं है उसके
    संग, काश,
    उसे
    छू पाते जो हमेशा रहा तुम्हारे अंतरंग !
    ---------------
    वाह! बहुत खूब लिखा है!

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  5. बजता रहा एकतारा अपनी जगह एकाकी...। बहुत अच्छी रचना है सर..। खूब बधाई

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  6. पुनः सी रहा हूँ मैं स्मृति चादर,
    क्या बात है ! शब्दों में एक आत्म मुग्ध कवि को पाती हूँ और शब्दों के विस्मय में डूब जाती हूँ | शांतनु जी , आपके लेखन पर लिखने के लिए शब्द नहीं मिलते | बहुधा पढ़कर लौट आती हूँ | सादर

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  7. बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन...मन में बेचैनी-सी छोड़ जाता है।
    सादर

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  8. कौन किसे ले डूबा
    या तो नदी जाने या
    सूरज को हो उसका पता....
    बहुत ही सार्थक लाजवाब सृजन।

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  9. पुनः सी रहा हूँ मैं स्मृति चादर,
    जबकि घिस चुके हैं सभी
    किनार, कुछ अमूल्य
    क्षण उभर आते
    हैं पैबंदों के
    पार,.. स्मृतियां एक ऐसी परछाईं हैं, जो अच्छी हो या बुरी,चलेंगी साथ ही,आपकी रचनाएं अनुभूति का खजाना हैं ।

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  10. कौन किसे ले डूबा
    या तो नदी जाने या
    सूरज को हो उसका पता....बहुत सुन्दर

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