26 दिसंबर, 2010
ख़ुदा हाफिज़
ज़िन्दगी न जाने और क्या चाहे
मुझे बिंधते हैं वो तीर व् भालों से
बेअसर हैं तमाम सज़ाएँ , मैं बहुत पहले
दर्द को निज़ात दे चुका, पत्थर से मिलो
ज़रूर मगर फ़ासला रखा करो,
न जाने किस मोड़ पे क़दम डगमगा जाएँ,
वो ख़्वाबों की बस्तियां उठ गईं
मुद्दतों पहले, हीरों के खदान हैं
ख़ाली, सौदागर लौट चुके ज़माना हुआ
दूर तलक है मुसलसल ख़ामोशी
बारिश ने भर दिए वो तमाम खदानों को
वक़्त ने ढक दिए, धूल व् रेत से
वो टूटे बिखरे मकानात, कहाँ है
तुम्हारा वो गुलाबी रुमाल, फूल व्
बेल बूटों से कढ़ा हुआ मेरा नाम ,
कभी मिले ग़र तो लौटा जाना
आज भी हम खड़े हैं वहीँ, जहाँ
पे तुमने ख़ुदा हाफिज़ कहा था इकदिन,
---- शांतनु सान्याल
21 दिसंबर, 2010
19 दिसंबर, 2010
लकीरें
कुछ सप्तरंगीय प्रवाहें,
एक स्वप्नमयी पृथ्वी शायद
है कहीं अन्तरिक्ष में,
सुप्त शिशु के मंद मंद मुस्कान
में देखा है उसे कभी,
नदी के बिखरे रेत में
किसी ने लिखा था पता उसका
बहुत कोशिश की, पढ़ पायें!
लकीरें जो वक़्त ने
मिटा दिए, चेहरें में उभर आयीं
काश ! उठते ज्वार की
लहरें इन्हें भी बहा लेतीं,
अर्घ्य में थे कुछ शब्द
जो कभी वाक्य न बन पाए
कुछ बूंदें पद चिन्हों में
सिमट कर खो गए वो
कभी मेघ न बन पाए
सुना है ये नदी गर्मियों में
कगार बदल जाती है फिर
कभी मधुमास में मिलेंगे तुमसे !
--- शांतनु सान्याल
11 दिसंबर, 2010
सीने में डूबता कोई माहताब देखा होगा
किनारे, क्या है दिल में तुम्हारे ख़ुदा जाने,
बेपरवाह ये ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाये
सामने हो तुम, उम्र है कितनी ख़ुदा जाने,
२. ओष की बूंदें थीं या दर्द के क़तरे
पंखुडियां गुलाब की क्यूँ झुक सी गयीं,
कोई जिस्म पे चला है दहकते पांव
देखते ही उनको सांसें क्यूँ रुक सी गयीं,
३. हमने तो उम्र का बिछौना दे दिया
सर्दियाँ थीं सदीद, चादर नाकाम रही,
तुमने ओढ़ ली ऊनी तश्मीना कम्बल
यहाँ सिहरन भरी सुबह ओ शाम रही,
४. मुस्कुराने के लिए कोई तो सबब होता
क्या करें बेवजह ही मुस्करा गए,
अश्क छुपाना भी इक सलाहियत है
जान कर भी हम दरवाज़े से टकरा गए,
५. लोग जो हँस पड़े हमने भी साथ दिया
किस लिए इतनी ख़ुशी थी मालूम नहीं,
हम ख़ुद को तलाशते रहे या उनको
ज़िन्दगी थी या ख़ुदकुशी मालूम नहीं,
६. भीड़ में भी थे सहमे सहमें तन्हां तन्हां
किसी ने पुकारा ज़रूर, पहचान न पाए,
कब तन्हाईयाँ घिर आयीं घटा बन कर
भीगते गए लेकिन हम उन्हें जान न पाए,
७. लबों को किसी ने छुआ ज़रूर था
बंद पलकों ने कोई ख़्वाब देखा होगा,
गर्म सांसों में नमी घोल गया कोई
सीने में डूबता कोई माहताब देखा होगा,
- शांतनु सान्याल
04 दिसंबर, 2010
भूमिगत ग्रंथियां
कर गईं, नीड़ की दरारें पूछती हैं
कहाँ व् कैसे तिनकों में परकीय
भावों ने घर किया, हमें तो पता
ही न चला, हमने तो प्रणय ईंटें
क्रमशः बड़े ही कलात्मक शैली में
सजाया था, सपनों के गारे से,
खिडकियों से झाँकतीं कृष्ण कलि
के फूलों ने कहा- शायद प्रीत में
थी सजलता ज्यादा या अश्रु ही
मिलाना भूल गए, दरारों में भी
जीवन थे, हमने महसूस किया
आत्मीयता की साँसें गिरती
उठतीं हों, जैसे असमय हो जाये
मोहभंग, ग्रंथियों के जनक थे
अपने अति प्रिय, हमने बड़े स्नेह
से उन्हें रोपण किया, सूर्य व्
वर्षा से बचने के लिए, दालान
में थे वो सभी अब तक, लेकिन
कब व् कैसे जड़ों ने आधार भेद,
गृह प्रवेश किया, ये सोच पाते
कि फर्श में स्वप्न हाथों से छूट
कर यूँ बिखरे, जैसे कोई अमूल्य
फूलदानी टूट जाये अकस्मात् -
-- शांतनु सान्याल
03 दिसंबर, 2010
खुद से बाहर कभी,यूँ निकल ही न सके
खुद से बाहर कभी,यूँ निकल ही न सके /
आधी रात किसी ने दी है, कांपती हाथों से दस्तक
सांसों की तपिश, हम पिघल ही न सके /
वो जो कहते हैं, हमसे बेशुमार मुहोब्बत हैं उनको
बारहा चाहा, सांचे में कभी ढल ही न सके /
धनक ने तो बिखेरी हैं रंग ओ नूर उम्र भर ऐ दोस्त
बेमुराद दिल है कि हम मचल ही न सके /
उनकी आहट में भी ख़ुशबू ऐ चमन होता है अक्सर
संदल की तरह मंदिर में बहल ही न सके /
धूप दीप तुलसी शंख की आवाज़े हमें बुलाये हर बार
न जाने क्या नमी है चाह कर जल ही न सके /
सुलगती हैं धीमी धीमी लौ से कोई आग सीने में
सारी नदी है आगे, इक बूंद भी निगल न सके/
बिल्लोरी बदन ले के जाएँ कहाँ पत्थर के शहर में
ख़ूबसूरत ख्वाबों से,खुद को बदल ही न सके/
खुद से बाहर कभी,यूँ निकल ही न सके/
---- शांतनु सान्याल
धुँध की गहराइयाँ
लौटतीं सदाओं ने क्यूँ राह मोड़ लिया
उफ़क़ के पार थे वो सभी कांच के ख़्वाब
बर्फ़ के नाज़ुक परतों में हमें छोड़ दिया,
क़दमों के नीचे था आसमां या झील कोई
चाहा दिल से खेला फिर उसे तोड़ दिया,
इक पुल जो सदियों से था हमारे बीच
पलक झपकते उसे कहीं और जोड़ दिया,
सीने में कहीं है इक गुमशुदा नदी
बहती लहरों का रूख़ तुमने मोड़ दिया,
रेत के वो तमाम घर ढह गए शायद
बड़ी बेदर्दी से जिस्त, तुमने मरोड़ दिया,
लौटतीं सदाओं ने क्यूँ राह मोड़ लिया ,
- - शांतनु सान्याल
ग़ज़ल - - बरसना है तो बरस जाओ
01 दिसंबर, 2010
अग्नि वृत्त
की खोज में भटकती हैं, व्यक्तित्व के परिधि में,
त्रिज्या थे वो सभी भावनाएं केंद्र बिंदु को भेद गईं
ज्यामितीय संकेतों ने छला, जीवन गणित था या
कोई महा दर्शन, हम तो केवल छद्म रूपी शतदल
में यूँ उलझ के रह गए कि निशांत का पता न चला,
क्षितिज के आँखों से जब काजल धुले, समुद्र तट
बहुत दूर किसी अपरिचित दिगंत में खो चुका,
प्रतिध्वनियाँ लौट आईं अक्सर हमने तो आवाज़ दी,
किसने किसका हाथ छोड़ा, कौन कहाँ खुद को जोड़ा
बहुत मुश्किल है,समीकरणों का शून्य होना -
किस के माथे दोष मढ़े हमने स्वयं अग्नि वृत्त घेरा,
- - शांतनु सान्याल
क्षणिका - - अरण्य पथ
पड़े हैं बिखरे, विगत मधुमास की निशानी
पग चिन्हों तले कहीं दबे हैं निसर्ग अर्घ्य
या भावनाएं, जीवन तो है लहर अनजानी
मैं डूब जाऊं उस नेह में हर बार हर जनम
प्रीत की गहराइयाँ हैं उनमें जानी पहचानी /
-- शांतनु सान्याल
29 नवंबर, 2010
क्षणिका - - सजल नयन
कुहासे में ढक चुकी थीं पुष्प वीथिका,
अभिसारमय थे निशीथ व ज्योत्स्ना
खिले थे हर दिक मालती व यूथिका,
कण कण में थे ज्यूँ सोमरस घुले हुए
रौप्य या स्वर्ण रंगों में थी मृतिका,
विचलित ह्रदय एकाकी हंस अकेला
टूट बिखर जाय जैसे कोई वन लतिका,
-- शांतनु सान्याल
आत्मसात
समुद्र तट था या वक्ष स्थल हमें ज्ञात नहीं
लवणीय प्रांतर अथवा पलकों से झरे थे
चाँदनी, हमने तो सर्वस्व आत्मसात किया
जो भी अवशेष थे आलिंगनबद्ध रहे, निःशब्द
हम दग्ध पाओं से चलते रहे किसी के
पद चिन्हों में, सप्तपदी के मन्त्रों की तरह
उच्चारित थे सागर उर्मि, अग्नि साक्षी थे
निशाचर पक्षी या अंतर्मन की छाया
तुमने जिस तरह चाहा हमने उसी दिशा में
मेघ की भांति अपने आप को बरसाया
हाड,मांस, रुधिर, स्नायु तंतु जो भी
देह के पांथशाला में थे, हमने प्रतिपल उन्हें
प्रतिदान किया, अब और कौनसा क्षितिज
छूट गया हमें तो मालूम नहीं, ह्रदय झील
में अब क्यूँ बिम्ब हैं कुछ चाँद के उदास
हमने तो जीवन को गहरा रंग दिया
तुमने क्यूँ अपना मुख फेर लिया //
-- शांतनु सान्याल
28 नवंबर, 2010
नीबू के फूलों की महक
25 नवंबर, 2010
पारदर्शी प्याला - ग़ज़ल
सलीब पे ज़िन्दगी कब थी आज़ाद प्यास है सृष्टि की आग,
इश्क़ का रंग भी है पानी की तरह जीस्त को हासिल जो भी हो,
वो तमाम चेहरे बन कर आएं हैं फिर रहनुमा या तमाशाई ?
दिल तो मोहरा बन चुका अब आसान या मुश्किल जो भी हो,
न पूछ दीवानगी, ज़हर पियूं ग़र मैं, तुम नीलकंठ बन जाना,
हमने हयात-ऐ- फ़िरदौस जी ली मुख़्तसर या तवील जो भी हो,
लोग क्यों किस्तों में करते हैं खुशियाँ तलाश, लम्हा दर लम्हा,
हमने बाँहों में समेट ली ऐ दुनिया दर्द- ए - मुस्तक़बिल जो भी हो,
- - शांतनु सान्याल
न मुश्किल हो
एक बूंद
वो एक बूंद जो पलकों से टूट कर
पत्थरों में गिरा, ज़माना गुज़र गया
तुम्हें याद हो, कि न हो वो लम्हात
मगर पत्थरों के बीच वो ज़ब्त हो गया
सदियों से लेखक, कवि या शायरों ने
तलाशा उसे, उत्खनन किया रात दिन
वो घनीभूत अश्रु न जाने किस किस रूप
में लोगों ने देखा, और महसूस किया
कल्पनाओं के रंग भरे चित्रकारों ने
जौहरियों ने खुबसूरत नाम दिए
माणिक, मुक्ता न जाने क्या क्या
कैसे समझाऊं वो बूंद तो पलकों से
गिरा ज़रूर, ये हकीक़त है लेकिन
वो अब तलक मेरी दिल की पनाहों
में है मौजूद, काश कोई देख पाता उसे /
-- शांतनु सान्याल
24 नवंबर, 2010
नज़्म - - मासूम आँखें
और कुछ टूटे प्याले, मैंने
रखे हैं संभाले, किसी
मिल्कियत की
तरह,
सहम से जाये है ज़िगर जब
अल्बम को छुए कोई,
ज़िल्द की खूबसूरती
इतनी कि लोग
समझे,
पुराने पन्नों में है ज़िन्दगी
के आबसार निहाँ,
न पलटों मेरी
जाँ, परतों
को इस
बेदर्दी से कि भूले लम्हात
को समेटना हो मुश्किल,
बड़े ही जतन से
परत दर
परत
हमने किसी की निशानी
सुलगते सीने के तहत
दबाये रखा है,
ढलती
दुपहरी दौड़तीं है नाज़ुक
धूप की जानिब
तितलियाँ
उडी जा
रहीं हों जैसे दूर तलक
उदास हैं किसी बच्चे
की मासूम आँखें,
तकता है वो
खुली
हथेलियों को कभी, और
कभी देखता है
ख्वाबों को
धूमिल
होते,
- - शांतनु सान्याल
23 नवंबर, 2010
लेकिन
अँधेरा है अब तलक पहाड़ियों के दूसरी तरफ
बादलों ने उन्हें क्यों दर किनार किया
ख़्वाब बोये थे हमने तो मुहोब्बत के
दोनों ही ढलानों में एक से,
आदम क़द थे वो तमाम आईने
उम्र ही न बढ़ पायी या
हम आईना देखना ही भूल गए,
क्यूँ छोड़ दिया तुमने मुहोब्बत का चलन
सूने झूलों में झूलती है अभी तलक वो यादें
घर से निकले थे हम साथ साथ
मेले के भीड़ में उंगली पकड़ना ही भूल गए ,
न तुमने तलाशा हम को, न हम ही खोज पाए
उम्र तो गुज़र गयी इसी उलझन में
रात है गहराई, हम चिराग़ जलाना ही भूल गए,
रिश्तों की कमी न थी, लेकिन
हम अपना बनाना ही भूल गए /
-- शांतनु सान्याल
22 नवंबर, 2010
नज़्म - - बहोत मुश्किल है
खुद को यूँ ही तबाह करना
परेशां नज़रों से न देखो
आसाँ नहीं दिल को अथाह करना
डूब जाएँ किनारों की ज़मीं
इस तरह बहने की चाह रखना
नाज़ुक हैं कांच के रस्ते
धीरे ज़रा प्यार बेपनाह करना
मौसमी फूलों से न हों मुतासिर
इश्क़ मेरी जाँ बारहों माह करना
खला के बाद भी है कोई दुनिया
हर जनम में मिलने की चाह रखना -
- - शांतनु सान्याल
21 नवंबर, 2010
ग़ज़ल - - ग़र चाहो तो जवाब दे देना
तुम मिलो तो सही किसी मोड़ पे, पुराने वो सभी हिसाब ले लेना
बरसती हैं रहमतें, हम भी अपना आँचल उम्मीद से फैला गए
इक मुद्दत से लिखी हैं बेसुमार ख़त, ग़र चाहो तो जवाब दे देना /
हर एक लफ्ज़ में छुपे हैं हज़ारों फ़लसफ़ा-ऐ -तिश्नगी ऐ दोस्त
फ़लक है महज इक ख़याल, ज़मीं, सितारे ओ महताब ले लेना/
जिस्त की ओ तमाम मरहले हैं, किसी वीरां अज़ाब की मानिंद
शीशा है टूट जाए तो क्या, इक नया गुलदान-ऐ-ख़्वाब दे देना /
मंदिर की वो तमाम सीढियाँ, वक़्त की नदी निगल सी गई
उम्र गुज़ार दी हमने इबादत में, चलो तुम ही सवाब ले लेना /
परछाइयों से पूछते हैं अक्सर हम अपना ठिकाना दर-ब-दर
मिलो तो सही इक बार, बदले में यूँ ही ज़िन्दगी नायाब ले लेना /
उठती हैं ज़माने की नज़र हर जानिब, ज़हर बुझे तीरों की तरह
शिकार हों न जाएँ किसी के ज़द में कहीं, दर्द-ऐ-शराब दे देना /
तुम मिलो तो सही किसी मोड़ पे, पुराने वो सभी हिसाब ले लेना/
-- शांतनु सान्याल
20 नवंबर, 2010
शबनम की तरह बिखर जाएँ
चाँदनी रात है, दूर तलक बिछे हैं, हसरतों के मोती,
खुशबू-ऐ-जिस्म है या शाख-ऐ-गुल, जी चाहे निखर जाएँ ।
किसी की धडकनों में छलकती हैं मधु बूंदों की खनक,
किसी के क़दमों तले मौजें हैं रवाँ, दिल चाहे संवर जाएँ,
रात के पखेरू तकते हैं, उनींदी आँखों से बार बार हमको,
सागर के सीने में कौंधती हैं, बिजलियाँ ज़रा ठहर जाएँ,
कश्तियाँ भूल गये रस्ते, चाँद भटके है मजनू की तरह,
आसमां ओ ज़मीं के दरमियाँ, शिफर को इश्क़ से भर जाएँ,
इस रात की गहराइयों में चलों खो जाएँ सुबह से पहले,
छु लो यूँ ही बेखुदी में, कहीं शाखों से न सभी फूल झर जाएँ ।
- -
17 नवंबर, 2010
नज़्म - - एक आहट
लरज़ती बिजलियाँ, शाखों से गुल गिरते हैं, हसीं अंगडाई की तरह
शायद लम्बी है ख़ुमारी, कि नशे में हर जुर्म कुबूल न जाऊं मैं
हर एक आहट में, हजारों हसरतें, हसरतों में ज़िन्दगी भटके यूँ ही
जुनूँ के हद से तो निकल आऊं, फाँस-ऐ-इश्क मेंकहीं न झूल जाऊं मैं
ज़िन्दगी की कश्मकश में, खुद का वज़ूद, न समेट पाया कभी
किसी की चाहत में ऐ दोस्त, कहीं चेहरा अपना ही न भूल जाऊं मैं ।
-- शांतनु सान्याल
16 नवंबर, 2010
अनल पथ यात्रि
हाथों में हाथ लिए, वृन्द चीत्कार के मध्य
गहन अन्धकार हो या पुलकित निशीथ
हास्य व् क्रंदन, कभी उच्च प्रतिकार के मध्य
वो थे आग्नेय अरण्य के अनाम वासी
धर्म-अधर्म के बाहर, मानव विचार के मध्य
वो तुमुल प्रणय के साक्षी, सृष्टि के निर्माता
महोत्सव जय गान मेंथे, कभी हाहाकार के मध्य
एक विशाल विह्ग वृन्द, उड़ गये जाने कहाँ
जर्जरित नभ में थे वो, कभी सिंह द्वार के मध्य
कोई उदासीन नेहों से तकता शून्य नीलाकाश
वो यात्रि न जाने कब लौटेंगे इस संसार के मध्य/
-- शांतनु सान्याल
नज़्म - - वो कल भी आज रहा
वो तमाम ख़त यूँ तो जला दिए मैंने
न भूल पायें वो लरज़ता साज़ रहा
कोई पुराना ढहता महल था शायद
कभी कराह कभी मीठी आवाज़ रहा
रुख़ मेरा अब परछाई नज़र आये
वो कभी ख़्वाब, हसीं परवाज़ रहा
उसे भूल जाने का क़दीम अहद
तोड़ा न गया वो कल भी आज रहा -
--- शांतनु सान्याल
नव स्वप्न
रक्त व् मांस की वो ज्वलित गंध
संस्कृति व् सभ्यता के तिमिर गुफाओं में
प्रतिबिंबित होते बारम्बार
सुप्त सरीसृप सम मानवीय अनुबंध
उच्चारित होते अक्सर प्रणय मन्त्र बीच
मैं और केवल मैं प्रतिध्वनि मध्य
हो जैसे सम्पूर्ण वसुधा समाहित
बंधुत्व व् प्रेम जहाँ एक मिथक
दंश प्रतिदंश, सम्बन्ध जहाँ विषदंत
हर पल जैसे मौन चिर विनिमय
परित्यक्त ह्रदय, अवहेलित भावना
अभिशापित देह व् सतत उत्खनन
फिर भी चाहे जीवन एक नव आरम्भ
इन्द्रधनु से छलके प्रतिपल नव स्वप्न /
--शांतनु सान्याल
15 नवंबर, 2010
क्षणिका - - उन्मुक्त आकाश,
मध्य निशा, तरंग विहीन ह्रदय स्पंदन,
तृषित देह व प्राण, अपेक्षित हिंस नयन,
जीवन संग्राम, प्रति पल, मृत्यु अभिनन्दन,
मम व्यक्तिव, धूप दीप हो सम चन्दन,
-- शांतनु सान्याल
नज़्म
लब - ऐ -साहिल पे उसने, कोई राज़ यूँ ही छिपा लिया अक्सर
ख़ामोश निगाहों से सही, कोई बात यूँ ही बता दिया अक्सर,
जो जान के अनजान नज़र आये, नफासत से दामन बचा गए
मुस्कराएअजनबी की तरह, खुद को यूँ ही बचा लिया अक्सर,
हर तरफ थे पहरे, हर जानिब भटकती आँखों के हजूम,
वो आये पैगाम-ऐ-वफ़ा बनकर,इश्क़ यूँ ही जाता दिया अक्सर,
न कोई शक़ न सुबू की थी गुंजाइश, पाकीज़गी तो देखो
अक्श मेरी, अपनी आँखों में चुपचाप यूँ ही बसा लिया अक्सर /
--- शांतनु सान्याल
नदी
नज़्म - - तलाश
छू भी न सके जिसको, उसे पाने की आस करता रहा,
सितारे डूबते गए , दूर स्याह आसमां की गहराइयों में
न जाने क्यों तमाम रात, खुद को उदास करता रहा,
चाँद की परछाई, समंदर से लुकछुप करती रही बारहा
वो जागी नज़रों में , ख्वाबों को यूँ अहसास करता रहा,
कब रात ढली, अलसाई निगाहों में लिए अफसाने
उम्र भर इसी उलझन में अपने आपको हताश करता रहा,
- - शांतनु सान्याल
14 नवंबर, 2010
उनके जाते ही --
जो कहना चाहे उन्हें बार बार
घिर आयी बरसात उनके जाते ही,
मिट गए क़दमों के निशाँ दूर तक
बिखर गए जज़्बात उनके जाते ही,
अहसास-ऐ-ज़िन्दगी का इल्म हुवा
थम सी गई हयात उनके जाते ही,
क़बल इसके दिल को राहत थी
दर्द बनी मुलाक़ात उनके जाते ही,
न कोई गिला न ही शिकायत थी
बदल गए हालात उनके जाते ही,
दामन में सज़ाओं की कमी न थी
क़ैद हुई हर निज़ात उनके जाते ही,
सुबह-ओ -शाम की खबर कहाँ
थम सी गई क़ायनात उनके जाते ही,
यूँ तो आसना थे तमाम रहगुज़र से
क्यूँ पेश आयीं मुश्किलात उनके जाते ही,
खो गए फूल,सज़र ओ तितलियाँ
वीरान हुए बागात उनके जाते ही,
दर्पण है गुमसुम अक्स धुंधलाया सा
न बाक़ी कोई तिलिस्मात उनके जाते ही,
-- शांतनु सान्याल
13 नवंबर, 2010
अनाम फूल की ख़ुश्बू - -
बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ
और रंग भरी धरती के बीच,
लाये सात सुरों में जीवन के गीत,
वो कोई अबाध नदी कभी इस
तट कभी उस किनारे गाँव गाँव ,
घाट घाट बैरागी मनवा बंधना
कब जाने पीपल रोके, बरगद टोके
प्रवाह बदलती वो कब रुक पाती
कलकल सदा बहती जाती
वो कोई अनुरागी मुस्कान
अधर समेटे मधुमास,
राह बिखेरे अनेकों पलास,
हो कोई अपरिभाषित प्रीत
आत्मीयता का नाम न दो
ख़ुश्बू, पंछी और नदी
रुक नहीं पाते रोको लाख
मगर, ये बंजारे भटकते जाते
सागर तट के घरौंदें ज्यों
बहते जाये लहरों के बीच।
* *
-- शांतनु सान्याल
12 नवंबर, 2010
11 नवंबर, 2010
ग़ज़ल - - नीलामी का मंज़र
अब तक़दीर की बेवफ़ाई न पूछ मेरे महबूब
शिक़स्त से पहले वो, फिर कामयाब नज़र आए,
कभी अक़ीदत का बाइस था मेरा वजूद भी लोगों
वक़्त बदलते ही उन्हें ज़िन्दगी अज़ाब नज़र आए ,
बड़ी नफ़ासत से संजो रखा था किसी की मुहोब्बत
दिन ढलते ही वो कभी सहरा कभी सैलाब नज़र आए,
जो कभी हमक़दम हमराह था, ज़िन्दगी के सफ़र में
पुल के ढहते ही अचानक दूर एक ख़्वाब नज़र आए,
रस्म-ओ- रिवाज की अहमियत से था अब तक बेख़बर
दिल क्या टूटा हज़ारों बिखरे हुए इन्क़लाब नज़र आए,
पूछते हैं वो मेरी दीवानगी का सबब अक्सर ज़माने से
पिघलते हदीद भी उनको ऐ दोस्त शराब नज़र आए,
नीलामी का मंज़र था बहोत ख़ूबसूरत ऐ अहदे-वफ़ा
हद-ऐ-नज़र तमाम जान-ऐ -ज़िगर अहबाब नज़र आए,
-- शांतनु सान्याल
08 अक्टूबर, 2010
दो किनारे
क्षितिज में शायद मिलते हों कहीं,
या महा समुद्र दोनों को निगल जाती
है, ये सोच तुम कि कहीं लवणीय न
हो जाओ, ये सोच कि मैं मिठास न
भूल जावूँ ,एक दूरी में बहते रहे पृथक
श्रावण के सघन मेघों ने चाहा कि एक
गुप्त संधि हो मध्य हमारे,घातक
तड़ित ने उसे बार बार यूँ तोड़ा की
हम चाह कर भी एक दुसरे के समीप
आ न सके , समानान्तर प्रवाहित रहे /
-शांतनु सान्याल
03 अक्टूबर, 2010
सनातनी
02 अक्टूबर, 2010
मोक्ष
29 सितंबर, 2010
नज़्म
निग़ाहों में इक ख़्वाब लिए बैठे हो मेरी जाँ,
कुछ क़दीम दर्द इतने भी आसान नहीं होते
वो जो मेरा हमदर्द, हमराज़ था इक दिन
नजदीकियां सरे बज़्म यूँ ही बयाँ नहीं होते,
वादियों में फूल खिले हैं, मौसम से पहले
हर महकती आरज़ू लेकिन गुलिस्ताँ नहीं होते //
-- शांतनु सान्याल
26 सितंबर, 2010
नज़्म
ज़िन्दगी की वो तमाम उलझनें भूल जाएँ
कुछ देर के लिए ही सही करीब तो आओ
मुस्कराएँ मिलके दो पल, सारे बहाने भूल जाएँ
तुम्हारे अश्क में चमकतीं हैं, अक्सर
कुछ मेरे दर्द की बूंदें रह रह कर
छू लो मुझे फिर से, अपने या बेगाने भूल जाएँ
कांपती हैं, क्यूँ जज़्बात किसी लौ की तरह
न छुपाओ, के दिल में चिराग है तुम्हारा
थाम लो मेरी साँसें, नासूर ज़ख्म पुराने भूल जाएँ
करें भी तो क्या,शिकायत हम किसी से
वक़्त के आगे कौन ठहरा है, ऐ हमनशीं मिले
डूबती नज़र को साहिल, मंजिल अनजाने भूल जाएँ //
-- शांतनु सान्याल
05 सितंबर, 2010
मधुरिम एक अनुबंध
भीनी भीनी मीठी सी सुगंध
साँसों में खिले हों
जैसे सहस्त्र निशिगंध
स्पर्श तुम्हारा दे जीवन को
मधुरिम एक अनुबंध
नेहों से बरसे प्रणय बूँद
मन विचलित ज्यों मकरंद
अधरों में ढले मधुमास
शब्दों से छलके मधुछंद
आम्र मुकुल सम कोमल अंग
रसिक पवन चलत थम थम
खुले कुंतल बलखाये पल छिन
पथिक भरमाय अदृश्य सरगम
चलत बाट ज्यूँ लहरे कदम्ब डार
जमुना नीर बहत मद्धम मद्धम
कृष्ण निशब्द निहारत रूप
शशि मुख राधा हसत अगम //
-- शांतनु सान्याल
03 सितंबर, 2010
क़सम
क़सम खाई है
न पूछ मेरे सीने की
जलन का आलम
ग़र सांस भी लूँ तो अंगारों
की तपिश होगी
मेरे अहसासों में कहीं
अब तक सिसकता बचपन
मेरे आँखों में कहीं अब तक
बिकती हुई जवानी है
मेरे पहलु में कहीं अब तक
भूख से लाचार भटकती
जिंदगानी है
कैसे लिखूं खुबसूरत ग़जल
मेरे दिल में अभी तक
नफरत की निशानी है
तुम चाहो तो बदल लो रुख अपना
मेरे जिश्म ओ जां में अब तक
सुलगते ज़ख्मों की बयानी है
आसां नहीं हमराह मेरे चलना
मैंने इस रह में मिटने की
क़सम खाई है //
-- शांतनु सान्याल
क़सम
क़सम खाई है
न पूछ मेरे सीने की
जलन का आलम
ग़र सांस भी लूँ तो अंगारों
की तपिश होगी
मेरे अहसासों में कहीं
अब तक सिसकता बचपन
मेरे आँखों में कहीं अब तक
बिकती हुई जवानी है
मेरे पहलु में कहीं अब तक
भूख से लाचार भटकती
जिंदगानी है
कैसे लिखूं खुबसूरत ग़जल
मेरे दिल में अभी तक
नफरत की निशानी है
तुम चाहो तो बदल लो रुख अपना
मेरे जिश्म ओ जां में अब तक
सुलगते ज़ख्मों की बयानी है
आसां हमराह मेरे चलना
मैंने इस रह में मिटने की
क़सम खाई है //
-- शांतनु सान्याल
अग्नि पुरुष
त्रिशूल, खड़ग,मस्तक रक्त तिलक
अग्नि पुरुष हो समर प्रस्थान,
अर्घ्य शीश अर्पण,हो धर्मार्थ
अश्व रोहण, हस्ते केशरी ध्वज
रिपु मर्दन हेतु कर प्रस्थान //
तू सूर्य सम सहस्त्र अश्वारोही
गर्जत बरसत मेघ सम वीर पुरु
विध्वंस हो अधर्म, सर्वांश कुरु
नव श्रृष्टि हेतु कर सर्वस्व दान //
हे सिंह वदन, परिपूर्ण मनुष्य
झंकृत हो नभ कर महा गर्जना
कोटि कोटि जन उद्वेलित, करे प्रार्थना
हे नव युग पुरुष कर तिमिर अवसान //
-- शांतनु सान्याल
27 अगस्त, 2010
छणिका
हिय चंचल गुंजरित, मेघ बिन दामिनी /
मधु मालती महके, निशि पुष्प वृंत
अभिसारमय चर अचर, राग रागिनी /
पथ निहारत, अंग प्रत्यंग अकुलाय
शशि मुख मेघ, जस नभ अभिमानी /
पग विचलित, चलत अंचल ढल जाय
बैरन दर्पण, प्रतिबिम्ब अगन लगाय
देह मुर्छितमय, दंश करत मधु यामिनी //
--- शांतनु सान्याल
इक ख्याल
इक ख्याल की, की हर शख्स को मिलता
उसके दामन से ज़रा जियादा
इक ख़्वाब जो देखा था कभी
मिल कर बाँट लें रंज ओ अलम अपने
उस मोड़ पे तुमने क़सम तोड़ी
इस राह में हमने क़सम खाई
मिले न मिले मंजिल कोई ग़म नहीं
तनहा हूँ तो क्या, दूर कहीं
घुटती साँसों में अब तलक
ज़िन्दगी का अक्स नज़र आता है ,
मुसलसल तीरगी में भी ऐ दोस्त -
तेरा चेहरा नज़र आता है /
- - - शांतनु सान्याल
24 अगस्त, 2010
ज़िन्दगी तलाश करें
न डूब जाएँ नन्हें अनगिनत जुगनू
अन्तरिक्ष के गहरे धुंधलके में कहीं
क़दम तो उठायें कुछ तो प्रयास करें
कुछ खुशियाँ बाँट लें, दर्द आत्मसात करें
जो छूट गए भीढ़ में तनहा
तक़दीर न बदल पायें तो कोई बात नहीं
इक लम्हा ही सही, ज़रा सोचें
हाथ तो बढ़ाएं, ज़िन्दगी तलाश करें /
-- शांतनु सान्याल
16 अगस्त, 2010
सुदूर सीमान्त
पुनःतिमिर घन रात्रि,दूर बिहान , तन-मन अशांत /
नग्न शिशु, क्षुधित उदर, माँ की ममता भयाक्रांत
क्रन्दित ह्रदय, रिक्त पात्र, असंख्य मुख पुनः क्लांत /
निर्वस्त्र दर्शन,विछिन्न स्वप्न, मिथ्या सर्व सिद्धांत
लाल किला, विहंगम प्रवचन,ख़ाली हाथ तदुपरांत /
मेघाच्छादित नभ, भ्रमित भविष्य सुदूर सीमान्त //
---- शांतनु सान्याल
10 अगस्त, 2010
छणिका
अस्तगामी सूरज , शितिज उदास /
झिर झिर सांझ, तुलसी तले दीप ,
यमन मुखरित, पिया मिलन की आश /
सांध्य आरती, धूप धूनी पञ्च प्रदीप,
शिशुमुख संस्कृत श्लोक अनुप्रास /
शारदीय पूर्ण शशि, अभिसार चहुदिश
गृहिणी माथे दमके, सिंदूरवृत्त मधुमास /
मंदिर विग्रह बोलें, हे वत्स लो विश्राम
मधुमय रजनी, अल्प सुखद अवकाश //
-- शांतनु सान्याल
08 अगस्त, 2010
ग़ज़ल - - जुनूं ए हसरत
सुना है वादियों में टूट कर, दूर तलक बरसें हैं फिर बादल
भरे बरसात में शायद, दिल सुलगने का मंज़र ही देख जाते/
साँसें रुकीं रुकीं आह भी मुश्किल निगाहों में डूबतीं परछाइयाँ
बुझते चिराग़ों से सरे आम, दम निकलने का मंज़र ही देख जाते/
सूनी दीवारों में अब तक, महफूज़ हैं कुछ ज़ख्म माज़ी के रंगीन
सीने में सुलगती आग, ओ अश्क बिखरने का मंज़र ही देख जाते /
ओ तमाम खूंआलुदह ख़त जो तुमने कभी लिखे थे इश्क़ में डूब कर
शाखों से टूटते पत्तों की तरह, अलफ़ाज़ गिरने का मंज़र ही देख जाते/
ग़र फुर्सत मिले कभी भूले से ही सही क़ब्र की जानिब जाना
जुनूं ऐ हसरत ये है के, रूह भटकने का तुम मंज़र ही देख जाते /
-- शांतनु सान्याल
07 अगस्त, 2010
रुधिरांजलि
रक्त झरित वक्षस्थल, आहत मम देह-प्राण -
दग्ध हस्तों से हे माँ !रुधिरांजलि स्वीकार करें/
गूंजे जय घोष , शंख नाद हो अष्ठ दिगन्तों में
भरतवंशी-सनातनी,शत्रुओंकापुनः प्रतिकार करें/
ऐ धर्म युद्ध नहीं ,है अस्तित्व- समर आव्हान,
हे सुप्त आत्माएं, सहस्त्र बाहू से संहार करें/
विक्षिप्त मातृत्व की चीख है,सुवीर्य का प्रमाण दें,
कंठकहीन हो धरा, सिंह सम निहत बारम्बार करें/
स्वजाति,स्वभाषी,अरण्यवासी, चाहे प्रतिरोध बने
सपथ माँ लज्जा की, भुजंगो पे वार हर बार करें/
खंडित देवालय, रक्त प्लावित प्राचीर पुकारते--
उठो अर्जुन, अभिमनुयों, भग्न स्वप्न साकार करें//
---- शांतनु सान्याल
06 अगस्त, 2010
दो शब्द
इस भग्न देवालय के प्रस्तर हों फिर जागृत /
गोधुली में शंख ध्वनि, तुलसी तले पंचप्रदीप
निर्भय सांध्य आरती हों, उद्घोषित आर्यावृत /
महासिंधु के उच्च तरंगों में गूंजे विजय गान
ऋचाओं द्वारा अभिमंत्रित हों, बरसे ज्ञानामृत /
- शांतनु सान्याल
यादों के सायें
हवाओं में वो बात न रही
घटाओं ने रुख मोड़ लिया
फूलों से खुशबु महरूम हुए
चाँद न निकला रात भर
हर शू में थीं इक अजीबसी
बेरुख़ी,साया भी अजनबी सा,
हर सांस थीं सदियों की थकन
निगाहों से ख़्वाब दूर दूर
जिस्म मेरा सलीब पे ठहरा हुआ
ख़ामोशी बेरहम हाथों में
तेज़ नश्तर लिए हुए --
न लब ही हिले, न आह निकली
अँधेरों ने कुछ कीलें और जढ़ दी,
बेजान बदन, आइना भी न देख पाया
लोग कहतें हैं, के इश्क़ में चेहरा
खिल के गुलाब होता है,
मुद्दतों बाद जब उतरें हैं, आज
लड़खड़ाते आईने की जानिब
हमें मालुम भी नहीं के
शीशे का रंग जा चूका है ज़माना हुवा,
ये मेरा चेहरा है या
कोई तहरीर -ए - क़दीम, जिसे आज तक
कोई पढ़ न सका हो,
इक शाम की खूबसूरती और उम्र भर
लम्बी रात, न पूछ मेरे दोस्त
इंतज़ार का आलम
हम हैं या परछाई, क़ाश कोई बताये
शम्स ढलने का मंज़र --
डूबती आँखों में अब तलक, किसी के
यादों के सायें हैं //
-- शांतनु सान्याल
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