अँधेरा है अब तलक पहाड़ियों के दूसरी तरफ
बादलों ने उन्हें क्यों दर किनार किया
ख़्वाब बोये थे हमने तो मुहोब्बत के
दोनों ही ढलानों में एक से,
आदम क़द थे वो तमाम आईने
उम्र ही न बढ़ पायी या
हम आईना देखना ही भूल गए,
क्यूँ छोड़ दिया तुमने मुहोब्बत का चलन
सूने झूलों में झूलती है अभी तलक वो यादें
घर से निकले थे हम साथ साथ
मेले के भीड़ में उंगली पकड़ना ही भूल गए ,
न तुमने तलाशा हम को, न हम ही खोज पाए
उम्र तो गुज़र गयी इसी उलझन में
रात है गहराई, हम चिराग़ जलाना ही भूल गए,
रिश्तों की कमी न थी, लेकिन
-- शांतनु सान्याल
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