17 नवंबर, 2010

नज़्म - - एक आहट





 
कुछ दूरियां रहे बरक़रार, कि बेखुदी में खुद को न भूल जाऊं मैं
लरज़ती बिजलियाँ, शाखों से गुल गिरते हैं, हसीं अंगडाई की तरह
शायद लम्बी है ख़ुमारी, कि नशे में हर जुर्म कुबूल न जाऊं मैं
हर एक आहट में, हजारों हसरतें, हसरतों में ज़िन्दगी भटके यूँ ही
जुनूँ के हद से तो निकल आऊं, फाँस-ऐ-इश्क मेंकहीं न झूल जाऊं मैं
ज़िन्दगी की कश्मकश में, खुद का वज़ूद, न समेट पाया कभी
किसी की चाहत में ऐ दोस्त, कहीं चेहरा अपना ही न भूल जाऊं मैं ।
-- शांतनु सान्याल

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