वो एक पहाड़ी नदी, छोटी सी नन्ही सी
उथली और पत्थरों से भरी
सहमी-सहमी, तन्हा तन्हा
किसी दर्द भरी टीस की मानिंद
खुद को समेटे जैसे बहती हो
आहिस्ता आहिस्ता टूटे पुल के नीचे मंज़िल के जानिब सिमटी सिमटी
सावन में अँधेरा बादिलों का डराए उसे
कभी इस किनारे कभी उस तट
मुसलसल टूटती, बिखरती, संवरती
बहती जाती, ऊँचे दरख़्त सायादार
उसे ढकते, बेलें छूने को बेक़रार,
झरने, नाले जिस्म को चूर करते
पहाड़ों का घूरना लगे ख़ौफ़नाक
लगे जैसे उसका वजूद ये तोड़ डालेंगे
लेकिन वो नहीं रूकती, बहती जाती
अपने आप में खोई खोई, गुमसुम गुमसुम
कभी जागी कभी जैसे सोई सोई
सीने में लिए बेजुबान अफ़साने
अनकही बातें, राज़ की गहराइयाँ,
नदी तो सिर्फ बहती जाती, रात दिन
गिरह में बांधे अपने जज़्बात,
किसी हसीं आँखों से गिरतीं हों जैसे बूँदें
थम थम कर, रुक रुक कर ----
-- शांतनु सान्याल
15 नवंबर, 2010
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wah wah
जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर भावाव्यक्ति , बधाई
जवाब देंहटाएंभावों की सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंhttp://veenakesur.blogspot.com/
सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसीने में लिए बेजुबान अफसाने ...
जवाब देंहटाएं◊ ◊ शांतनु जी बहुत सुन्दर लेखनी है भाई जी ...
(मेरी लेखनी.. मेरे विचार..)
खूबसूरत बहाव लिए हुए रचना ..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद - सस्नेह / आपके अमूल्य प्रतिक्रियाएं भविष्य में कुछ बेहतर लिखने की प्रेरणा प्रदान करते हैं/
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