भूमिगत ग्रंथियां भित्तियों को पार
कर गईं, नीड़ की दरारें पूछती हैं
कहाँ व् कैसे तिनकों में परकीय
भावों ने घर किया, हमें तो पता
ही न चला, हमने तो प्रणय ईंटें
क्रमशः बड़े ही कलात्मक शैली में
सजाया था, सपनों के गारे से,
खिडकियों से झाँकतीं कृष्ण कलि
के फूलों ने कहा- शायद प्रीत में
थी सजलता ज्यादा या अश्रु ही
मिलाना भूल गए, दरारों में भी
जीवन थे, हमने महसूस किया
आत्मीयता की साँसें गिरती
उठतीं हों, जैसे असमय हो जाये
मोहभंग, ग्रंथियों के जनक थे
अपने अति प्रिय, हमने बड़े स्नेह
से उन्हें रोपण किया, सूर्य व्
वर्षा से बचने के लिए, दालान
में थे वो सभी अब तक, लेकिन
कब व् कैसे जड़ों ने आधार भेद,
गृह प्रवेश किया, ये सोच पाते
कि फर्श में स्वप्न हाथों से छूट
कर यूँ बिखरे, जैसे कोई अमूल्य
फूलदानी टूट जाये अकस्मात् -
-- शांतनु सान्याल
04 दिसंबर, 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...

गृह प्रवेश किया, ये सोच पाते
जवाब देंहटाएंकि फर्श में स्वप्न हाथों से छूट
कर यूँ बिखरे, जैसे कोई अमूल्य
फूलदानी टूट जाये अकस्मात् -
मोह ऐसे ही भंग होता है ..अच्छी प्रस्तुति
sangeeta ji apka sneh, ashirwad se kam nahi - naman sah
जवाब देंहटाएं