04 दिसंबर, 2010

भूमिगत ग्रंथियां

भूमिगत ग्रंथियां भित्तियों को पार
कर गईं, नीड़ की दरारें पूछती हैं
कहाँ व् कैसे तिनकों में परकीय
भावों ने घर किया, हमें तो  पता
ही न चला, हमने तो प्रणय ईंटें
क्रमशः बड़े ही कलात्मक शैली में
सजाया था, सपनों के गारे से,
खिडकियों से झाँकतीं कृष्ण कलि
के फूलों ने कहा- शायद प्रीत में
थी सजलता ज्यादा या अश्रु ही
मिलाना भूल गए, दरारों में भी
जीवन थे, हमने महसूस किया
आत्मीयता की साँसें गिरती
उठतीं हों, जैसे असमय हो जाये
मोहभंग, ग्रंथियों के जनक थे
अपने अति प्रिय, हमने बड़े स्नेह
से उन्हें रोपण किया, सूर्य व्
वर्षा से बचने के लिए, दालान
में थे वो सभी अब तक, लेकिन
कब व् कैसे जड़ों ने आधार भेद,
गृह प्रवेश किया, ये सोच पाते
कि फर्श में स्वप्न हाथों से छूट
कर यूँ बिखरे, जैसे कोई अमूल्य
फूलदानी टूट जाये अकस्मात् -
-- शांतनु सान्याल

2 टिप्‍पणियां:

  1. गृह प्रवेश किया, ये सोच पाते
    कि फर्श में स्वप्न हाथों से छूट
    कर यूँ बिखरे, जैसे कोई अमूल्य
    फूलदानी टूट जाये अकस्मात् -

    मोह ऐसे ही भंग होता है ..अच्छी प्रस्तुति

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