तुम न आये,इंतज़ार-ए-शाम ढल गई
हवाओं में वो बात न रही
घटाओं ने रुख मोड़ लिया
फूलों से खुशबु महरूम हुए
चाँद न निकला रात भर
हर शू में थीं इक अजीबसी
बेरुख़ी,साया भी अजनबी सा,
हर सांस थीं सदियों की थकन
निगाहों से ख़्वाब दूर दूर
जिस्म मेरा सलीब पे ठहरा हुआ
ख़ामोशी बेरहम हाथों में
तेज़ नश्तर लिए हुए --
न लब ही हिले, न आह निकली
अँधेरों ने कुछ कीलें और जढ़ दी,
बेजान बदन, आइना भी न देख पाया
लोग कहतें हैं, के इश्क़ में चेहरा
खिल के गुलाब होता है,
मुद्दतों बाद जब उतरें हैं, आज
लड़खड़ाते आईने की जानिब
हमें मालुम भी नहीं के
शीशे का रंग जा चूका है ज़माना हुवा,
ये मेरा चेहरा है या
कोई तहरीर -ए - क़दीम, जिसे आज तक
कोई पढ़ न सका हो,
इक शाम की खूबसूरती और उम्र भर
लम्बी रात, न पूछ मेरे दोस्त
इंतज़ार का आलम
हम हैं या परछाई, क़ाश कोई बताये
शम्स ढलने का मंज़र --
डूबती आँखों में अब तलक, किसी के
यादों के सायें हैं //
-- शांतनु सान्याल
06 अगस्त, 2010
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