दूर बहुत दूर नदी के दो किनारे
क्षितिज में शायद मिलते हों कहीं,
या महा समुद्र दोनों को निगल जाती
है, ये सोच तुम कि कहीं लवणीय न
हो जाओ, ये सोच कि मैं मिठास न
भूल जावूँ ,एक दूरी में बहते रहे पृथक
श्रावण के सघन मेघों ने चाहा कि एक
गुप्त संधि हो मध्य हमारे,घातक
तड़ित ने उसे बार बार यूँ तोड़ा की
हम चाह कर भी एक दुसरे के समीप
आ न सके , समानान्तर प्रवाहित रहे /
-शांतनु सान्याल
क्षितिज में शायद मिलते हों कहीं,
या महा समुद्र दोनों को निगल जाती
है, ये सोच तुम कि कहीं लवणीय न
हो जाओ, ये सोच कि मैं मिठास न
भूल जावूँ ,एक दूरी में बहते रहे पृथक
श्रावण के सघन मेघों ने चाहा कि एक
गुप्त संधि हो मध्य हमारे,घातक
तड़ित ने उसे बार बार यूँ तोड़ा की
हम चाह कर भी एक दुसरे के समीप
आ न सके , समानान्तर प्रवाहित रहे /
-शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें