अपनी अपनी ज़रूरत के तहत साथ चलने का इक़रार रहा, रात घिरते ही अपने
अलावा किसी का भी न इंतज़ार
रहा, न जाने कितने क़ाफ़िले
गुज़रे न जाने कितने
सितारे डूबे और
उभरे, ज़िन्दगी
का सफ़र
हमेशा
की तरह पुरअसरार रहा, अपनी अपनी
ज़रूरत के तहत साथ चलने का
इक़रार रहा । एक आस्तीं
में इश्क़ तो दूजे में
इंतक़ाम छुपा
रखे थे लोग,
बहोत
मुश्किल था पहचानना बदलते चेहरों का
उतार चढ़ाव, कभी आसमानी उड़ान
तो कभी खाइयों की जानिब
सरकते पांव, अपने
अपने ढंग से
लोग
खेलते रहे दांव, कहने को बहुत कुछ था
रिश्तों का तक़ाज़ा था हर वक़्त
ख़ामोश मेरे दिल का इज़हार
रहा, अपनी अपनी
ज़रूरत के तहत
साथ चलने
का इक़रार
रहा ।
- - शांतनु सान्याल
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंरिश्तों के बदलते हुए समीकरण पर गहरा कटाक्ष
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 1 अक्टूबर 2025 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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