थम चुका है टहनियों में परिंदों का कोलाहल, विस्तृत बरगद के नीचे है निशाचरों का दख़ल,
न जाने कौन, गुमशुदगी का तख़्ती लगा गया,
शहर के गली कूचों में बढ़ गई है चहल पहल,
तुम ढूंढते रहे जिसे उद्गम से लेकर मुहाने तक,
अहाते में कहीं था उसका ठिकाना दरअसल,
मंदिर मस्जिद की है अपनी अपनी मजबूरियां,
मेघ है समदर्शी बरसने में करता नहीं रद्दोबदल,
पंडालों की चकाचौंध में लोग करते रहे तलाश,
भीड़ में कहीं खो दिया है हम ने मां का आँचल,
- - शांतनु सान्याल
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