जहां ख़तम हो जाए बातों का ज़ख़ीरा, वहीं से होता है शुरू ख़ुद से गुफ़्तगू का
सिलसिला, ज़िन्दगी के
मुख़्तलिफ़ मोड़
पर मिलते
रहे न
जाने कितने चेहरे कुछ उजागर, कुछ धुंध
में छुपे हुए, अँधेरे उजाले का अंतहीन
खेल चलता रहता है यथावत,
किसे ख़बर कहाँ पर है
मौजूद पुरसुकून
का मरहला,
वहीं से
होता है शुरू ख़ुद से गुफ़्तगू का सिलसिला ।
अहाते की धूप रहती है मुख़्तसर वक़्त
के लिए, कुछ गुलाब की तक़दीर
में रहता है खुल कर मुस्काने
की वसीयत, कुछ झर
जाते हैं बिन खिले
ही शाम ढलने
से पहले,
अपने
अपने हिस्से का तयशुदा पुरस्कार मिला,
वहीं से होता है शुरू ख़ुद से
गुफ़्तगू का सिलसिला ।
- - शांतनु सान्याल
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