06 सितंबर, 2025

ग़ज़ल - -

उम्रदराज़ किताब की अब कोई ज़मानत नहीं,

सफ़ा टूट कर फिर जुड़ जाएं ऐसी हालत नहीं,

जाने क्यूं वो आज भी तकता है बड़ी चाहत से,
कैसे बताऊं कि मेरे पास उसकी अमानत नहीं,

ज़िन्दगी निचोड़ लेती है अपने ढंग से सब कुछ,  उजड़े हुए शहर में, आने की अब इजाज़त नहीं,

चौक में मजमा सा लगा है मुखौटे की दुकां पर,
जिसे दिल में उतार लें वो ख़ास शख़्सियत नहीं,

शाह राह के दोनों बाजू सज चले हैं मीनाबाज़ार,
फिर कभी मिलेंगे बियाबां में आज तबियत नहीं,

तमाम उम्र गुज़रे हैं, इन्हीं सुलगते तंग गलियों से,
ख़्वाब की वादियों में जाएं अब ऐसी हसरत नहीं,
- - शांतनु सान्याल





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