लटके रहो उलटे मेरूदंड के साथ जतुका की तरह, निःशब्द इंतज़ार करते हुए
सूरज डूबने का, अभी क्षितिज
पर बिखरे हुए हैं रक्तिम
मेघ के टुकड़े, ज़रा
बिखरने दो वन्य
गंध अरण्य
वीथि
में, चुप रहो इतना कि किसी को भी पता
न चले तुम्हारे उड़ने का, निःशब्द
इंतज़ार करते हुए सूरज डूबने
का । दर्पण जानता है सब
कुछ, तुम्हारे चेहरे के
परतों का रहस्य,
डिम्ब से फूट
कर पूर्ण
सरीसृप
बनने
तक का अध्याय, क्रमशः धुंधले हो चले
हैं सभी गेरुआ वसन, बस यही है
वक़्त निर्बल को निगलने का,
निःशब्द इंतज़ार करते
हुए सूरज डूबने
का । मर
चुका
है बरसों का कोलाहल, मृतपिण्ड पर है
केवल शब्दहीन कंपन, असमाप्त
मूक क्रंदन, आकाशमुखी
अट्टालिकाओं में चल
रहा है नग्न नर्तन,
पगडंडियों में
कहीं पड़े
हुए हैं
टूटे फूटे अनगिनत चेहरे, तलाशते हुए
एक रास्ता जीने का, निःशब्द
इंतज़ार करते हुए सूरज
निकलने का ।
- - शांतनु सान्याल
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