ग़ैर मुन्तज़िर कोई ख़्वाब जो दे जाए
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सुलगते दिल को पुरअसर सुकूं,
फिर मुझे देख उसी निगाह
ए हयात से, फिर
मिल जाए
मुझे
दोबारा गुमशुदा नींद का पता, है रूह
मज़तरब, जिस्म मजरूह, मिले
फिर मुझे निजात, मुद्दतों
के प्यासे जज़्बात
से, वो लम्स
जो कर
जाए सूखे दरख़्त सदाबहार, फिर -
इक बार छू मेरा ज़मीर उसी
तासीर ए बरसात से !
* *
- शांतनु सान्याल
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