राज़ ए वाबस्तगी वो कभी छुपा न सके,
भीड़ उनको यूँ घेरी रही हमेशा उम्र भर -
तन्हा दिल मगर किसी को दिखा न सके,
गुल खिले बहोत हस्ब मामूल हर तरफ़,
अहसास ए गुलदान दोबारा सजा न सके,
हर मोड़ पे थे, कई नुक़ता ए मरासिम !
किसी से भी दोबारा, दिल मिला न सके,
वो आज भी मुस्कुराते हैं बा चश्म मर्तूब
चाह कर भी, तबाह गुलशन बसा न सके,
ज़माना हुआ, रस्म रिहाई अब याद नहीं
सुनते हैं, वो आज भी हमें भूला न सके !
राज़ ए वाबस्तगी वो कभी छुपा न सके,
* *
- शांतनु सान्याल
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