ख़ौफ़ नहीं हमको इन अंधेरों से लेकिन -
कोई छुपके से हदफ़ बनाए तो
क्या करें, वो क़ातिल
निगाह अक्सर
देती है
फ़रेब मुझको, अपना आस्तीन ही धोखा
ग़र दे जाए तो क्या करें, इस दौर
के अपने ही हैं दस्तूर ओ
आईन, चेहरा ही
ख़ुद, इक
नक़ाब ग़र बन जाए तो क्या करें, इतना
अपनापन भी ठीक नहीं, कुछ तो
फ़ासला रहे दरमियां अपने,
कम से कम खंजर की
चमक तो नज़र
आए - -
* *
- शांतनु सान्याल
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