15 जुलाई, 2013

ग़ैर मुन्तज़िर - -

इक हौज़ ए शीशा है, उसकी मुहोब्बत,
तैरतीं हैं, जिस में मेरी चाहत की 
रंगीन मछलियाँ, ओढ़े हुए 
ख़्वाबों के पारदर्शी 
झीनी झीनी 
सी बदलियाँ, मेरी साँसों से जुड़ी हैं - - 
कहीं न कहीं उसकी धडकनें, 
जिस्म ओ जां में ढले 
हैं उसके सभी 
जज़्बाती
रंग, उसकी निगाहों की रौशनी से ही -  
मिलती है मुझे इक मुश्त ज़िन्दगी,
वो इश्क़ ए दरिया है अंतहीन -
गहरा, साहिल छूने की 
ख़्वाहिश न हो 
जाए कहीं 
ग़ैर मुन्तज़िर - - - - - - इक ख़ुदकुशी !
* * 
- शांतनु सान्याल
 http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
art by van otterloo

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