28 जनवरी, 2011

भूली सुबह की तरह


अभी अभी है चाँद ढला, दूर पहाड़ों में
चाँदनी फिर भी ढकी सी है दूर तक,
तलहटी में उभरें हैं, साँसों के
बादल मन चाहे तुम्हें
देखूं अन्धेरें में
क़िस्मत
की
तरह, बन जाओ कभी तुम रहनुमां, भूल
जाऊं मैं मुश्किल भरे ज़िन्दगी के
रास्ते, कौंधती हैं बिजलियाँ
पूरब में कहीं, बरस भी
जाओ किसी दिन,
दिल की
बस्तियां उजड़ने से पहले,कुछ तो मिले
सुकूं,के उड़ भी आओ कहीं से मसीहा
की  तरह, हर क़दम बोझिल के
टूट टूट जाए  ख्वाबों की
सीढियां, मैं चाहूँ तुम्हें
छूना और तुम हो
के बेख़बर
भूली
सुबह की तरह,
- - शांतनु सान्याल      


25 जनवरी, 2011

सूनापन

अरण्य अनल सम जागे मन की
सुप्त व्यथाएं
दूर कहीं टिटहरी टेर जाय
फिर जीवन में दहके बांस वन,
पल छिन बरसे मेह
झर जाएँ मौलश्री
स्थिर ह्रदय को जैसे दे जाए
दस्तक, कोई विस्मृत सन्देश,
भीगी साँसों में कोई चेहरा
उभरे डूबे बार बार
लहरों से खेले चाँद आँख  मिचौली
हिय उदासीन, जस अधखिली
कुमुद की नत पंखुडियां
रह रह जाय कांप,
रात की अंगडाई तारों से सजी
मेघों ने खोल दिया रात ढलते
सजल शामियाना आहिस्ते आहिस्ते,
खुली आँखों में मरू उद्यान  बसा
सपनों के क़ाफिले रुके ज़रूर
गीतों की बूंदें बरसीं
स्मृतियों ने बांधे नुपुर सुरीले
धड़कनों में था लेकिन सूनापन
आकाश ने उड़ेला पूरा आलोक
हमने चाहा बहुत मुस्कुराएँ
हँसी ओंठों तक पहुँचीं सहमे सहमे
सुबह से पहले बिखर गयीं सब
ओष की बूंदें बन कर .
--- शांतनु सान्याल




  

20 जनवरी, 2011

अदृश्य त्वम् रूप


अदृश्य त्वम् रूप 
पृथ्वी व् आकाश मध्य है, अन्तर्निहित 
अविरल प्रवाहित त्वम् रूप माधुर्य अनंत,
अदृश्य करुणासागर सम कभी वृष्टि रुपी 
तुम जाते हो बरस, कभी शिशुमय क्रंदन, 
धूसर मेघों को दे जाते हो पल में मधु स्पर्श,
तृषित धरा के वक्ष स्थल पर हो तुम ओष
बिंदु, हे अनुपम !अश्रु जल में भी समाहित,
त्वम् दिव्य आलोक निमज्जित सर्व जीवन,
झंझा के विध्वंस अवशेषों में भी तुम हो एक 
आशा की किरण, ज्यों प्लावित भूमिखंड 
में उभर आयें आग्नेय शैल बारम्बार,
इस गहन अंधकार में हो तुम दिग्दर्शक 
कभी खंडित भू प्रस्तर से सहसा हो प्रगट,
कर जाते हो अचंभित, भर जाते हो प्रणय सुधा,
--- शांतनु सान्याल 
painting by - Jone Binzonelli

19 जनवरी, 2011

जीवन किसी तरह भी जी न सके

जीवन किसी तरह भी जी न सके

जीवन किसी तरह भी जी न सके 
बिहान से पहले बिखर गए निशि पुष्प 
अर्धअंकुरित बीजों में थी नमी दो पल, 
अंजनमय मेघ, शपथ  भूल गए,
टूटती सांसों का इतिहास कहीं भी नहीं,
सजल नेहों ने पतझड़ को द्वार 
खटखटाते पाया, जीवन व्यथा अपने 
आप ही भर जाये इस उम्मीद से,
उड़ते पत्तों का मनुहार मन में लिए, 
मरुस्थल  में असंख्य प्रसून  सजाया -
फिर से आँगन में डाली प्रणय रंगोली 
दर्पण की धूल हटाई निमग्न हो कर 
खुद को संवारा हमने, रक्तिम साँझ को 
आना है, आये, यमन रुपी ज़िन्दगी को, 
दुख हो या सुख हमने तो हर पल गाया,
ये और बात है कि तुम स्वरलिपि बन न 
सके, हम जीवन किसी तरह जी न सके !
--- शांतनु सान्याल

07 जनवरी, 2011

स्मृति मेघ

वो श्यामपट अब भी है मौजूद
वही खपरैलों वाली प्राथमिक पाठशाला
जहाँ हमने लिखी थीं बारहखड़ी
उस अरण्य गाँव में हमने सीखी थीं
हिंदी वर्ण माला, पढ़ी थीं -
रसखान और कबीर, हमें याद है
अब तक निराला की - वर दे वीणावादिनी,
 नंगे पांव हमने की थीं प्रभात फेरी,
 उस आम्र कुञ्ज के नीचे न तुम थे
हिंदी न हम थे मराठी या बंगाली
माघ की सिहरन में बिछाए टाट पट्टी
हमने दोहराए संस्कृत सुभाषितानि,
तुम्हें याद हो की न हो,हमने देखी थी
एक सी दुनिया, खेले थे -
नदी पहाड़, लुकछुप, संग गाए
 प्रचलित लोकगीत - इतना इतना पानी -
वो सीमाविहीन मधुरिम एक जगत,
वसंत पंचमी में न तुम थे हिन्दू
न हम ही मुसलमान, एक साथ गुथा
फूलों का हार,गाए थे सरस्वती वंदना
उस गाँव भी आज भी उडती है
धान की ख़ुश्बू हवाओं में,
सरसराते हैं गन्ने के फूल, गोधूली में
अक्सर उड़ते हैं रंगीन स्मृति मेघ
कहीं न कहीं वहीँ आसपास हमारी साँसें
आज भी तकती हैं उस नन्हीं सी नदी को
किसी नई आश लिए -
--- शांतनु सान्याल 

04 जनवरी, 2011

झूठ मूठ ही सही

झूठ मूठ ही सही चलों खेलें, फिर इक बार 
वो कच्ची उम्र की नादानियाँ, 
कुछ छोटे छोटे प्लास्टिक के बर्तन, 
ले आओ मिटटी के दीये बरामदे में 
कहीं हैं पड़े, पिछले दिवाली के 
चलो चलें जीने के नीचे या 
पलंग के किसी एक कोने में 
नन्हीं आँखों की दुनिया बसायें दोबारा 
तुम फिर पुकारो मुझे उसी 
मीठी मासूम मुस्कान लिए 
पप्पू के पापा, मैं कहूँ तुमें पप्पू की 
मम्मी, एक रिश्ता जो कभी हो 
न सका, सोचो ज़रा उसी अंदाज़ में 
कि हम लौट जाएँ उसी सुन्दर 
बचपन की वादियों में 
इस मायावी पृथ्वी से कहीं अधिक 
खूबसूरती है उस जहाँ में, 
कल्पना करो कि हम फिर से छूएं
इक दूजे को पवित्र भावनाओं से,
उसी निश्छल हँसी में तलाशें फिर 
खोई हुई ख़ुशियाँ, चलो फिर एक बार 
घर घर खेलें ---
--- शांतनु सान्याल    
 

26 दिसंबर, 2010

ख़ुदा हाफिज़

सलीब तो उठाली है,
 ज़िन्दगी न जाने और क्या चाहे 
मुझे बिंधते हैं वो तीर व् भालों से 
बेअसर हैं तमाम सज़ाएँ , मैं बहुत पहले 
दर्द को निज़ात दे चुका, पत्थर से मिलो 
ज़रूर मगर फ़ासला रखा करो, 
न जाने किस मोड़ पे क़दम  डगमगा जाएँ,
वो ख़्वाबों की बस्तियां उठ गईं 
मुद्दतों पहले, हीरों के  खदान हैं 
ख़ाली, सौदागर लौट चुके ज़माना हुआ 
दूर तलक है मुसलसल  ख़ामोशी 
बारिश ने भर दिए वो तमाम खदानों को 
वक़्त ने ढक दिए, धूल व् रेत से 
वो टूटे बिखरे मकानात, कहाँ है 
तुम्हारा वो गुलाबी रुमाल, फूल व् 
बेल बूटों से कढ़ा हुआ मेरा नाम ,
कभी मिले ग़र तो लौटा जाना 
आज भी हम खड़े हैं वहीँ, जहाँ  
पे तुमने ख़ुदा हाफिज़ कहा था इकदिन, 
---- शांतनु सान्याल 













19 दिसंबर, 2010

लकीरें

आकाश पार बहती हैं अदृश्य
कुछ सप्तरंगीय प्रवाहें,
एक स्वप्नमयी पृथ्वी शायद
है कहीं अन्तरिक्ष में,
सुप्त शिशु के मंद मंद मुस्कान
में देखा है उसे कभी,

नदी के बिखरे रेत में
किसी ने लिखा था पता उसका
बहुत कोशिश की, पढ़ पायें!
लकीरें जो वक़्त ने
मिटा दिए, चेहरें में उभर आयीं
काश ! उठते ज्वार की
लहरें इन्हें भी बहा लेतीं,

अर्घ्य में थे कुछ शब्द
जो कभी वाक्य न बन पाए
कुछ बूंदें पद चिन्हों में
सिमट कर खो गए वो
कभी मेघ न बन पाए
सुना है ये नदी गर्मियों में
कगार बदल जाती है फिर
कभी मधुमास में मिलेंगे तुमसे !
--- शांतनु सान्याल

11 दिसंबर, 2010

सीने में डूबता कोई माहताब देखा होगा

१. नीचे है, अथाह खाई लो मैं खड़ा हूँ
किनारे, क्या है दिल में तुम्हारे ख़ुदा जाने,
बेपरवाह ये ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाये
सामने हो तुम, उम्र है कितनी  ख़ुदा जाने,


२. ओष की बूंदें थीं या दर्द के क़तरे
पंखुडियां गुलाब की क्यूँ झुक सी गयीं,
कोई जिस्म पे चला है दहकते पांव
देखते ही उनको सांसें क्यूँ रुक सी गयीं,

३. हमने तो उम्र का बिछौना दे दिया
सर्दियाँ थीं सदीद, चादर नाकाम रही,
तुमने ओढ़ ली ऊनी तश्मीना कम्बल
 यहाँ सिहरन भरी सुबह ओ शाम रही,

४. मुस्कुराने के लिए कोई तो सबब होता
क्या करें बेवजह ही मुस्करा गए,
अश्क छुपाना भी इक सलाहियत है
जान कर भी हम दरवाज़े से टकरा गए,

५. लोग जो हँस पड़े हमने भी साथ दिया
किस लिए इतनी ख़ुशी थी मालूम नहीं,
हम ख़ुद को तलाशते रहे या उनको
ज़िन्दगी थी या ख़ुदकुशी मालूम नहीं,

६.  भीड़ में भी थे सहमे सहमें तन्हां तन्हां
किसी ने  पुकारा ज़रूर, पहचान न पाए,
कब तन्हाईयाँ घिर आयीं घटा बन कर
भीगते गए लेकिन हम उन्हें जान न पाए,

७. लबों को किसी ने छुआ ज़रूर था
बंद पलकों ने कोई ख़्वाब देखा होगा,
गर्म सांसों में नमी  घोल गया कोई
सीने में डूबता कोई माहताब देखा होगा,
- शांतनु सान्याल

04 दिसंबर, 2010

भूमिगत ग्रंथियां

भूमिगत ग्रंथियां भित्तियों को पार
कर गईं, नीड़ की दरारें पूछती हैं
कहाँ व् कैसे तिनकों में परकीय
भावों ने घर किया, हमें तो  पता
ही न चला, हमने तो प्रणय ईंटें
क्रमशः बड़े ही कलात्मक शैली में
सजाया था, सपनों के गारे से,
खिडकियों से झाँकतीं कृष्ण कलि
के फूलों ने कहा- शायद प्रीत में
थी सजलता ज्यादा या अश्रु ही
मिलाना भूल गए, दरारों में भी
जीवन थे, हमने महसूस किया
आत्मीयता की साँसें गिरती
उठतीं हों, जैसे असमय हो जाये
मोहभंग, ग्रंथियों के जनक थे
अपने अति प्रिय, हमने बड़े स्नेह
से उन्हें रोपण किया, सूर्य व्
वर्षा से बचने के लिए, दालान
में थे वो सभी अब तक, लेकिन
कब व् कैसे जड़ों ने आधार भेद,
गृह प्रवेश किया, ये सोच पाते
कि फर्श में स्वप्न हाथों से छूट
कर यूँ बिखरे, जैसे कोई अमूल्य
फूलदानी टूट जाये अकस्मात् -
-- शांतनु सान्याल

03 दिसंबर, 2010

खुद से बाहर कभी,यूँ निकल ही न सके

 ख़याल कि छूट न जाएँ हम कहीं दुनिया की  भीड़ में
 खुद से बाहर कभी,यूँ  निकल ही न सके /

आधी रात किसी ने दी है, कांपती हाथों से दस्तक
सांसों की तपिश, हम पिघल ही न सके /

वो जो कहते हैं, हमसे बेशुमार मुहोब्बत हैं उनको
बारहा चाहा, सांचे में कभी ढल ही न सके /

धनक ने तो बिखेरी हैं रंग ओ नूर उम्र भर ऐ दोस्त
बेमुराद दिल है कि हम मचल ही न सके /

उनकी आहट में भी ख़ुशबू ऐ चमन होता है अक्सर
संदल की तरह मंदिर में बहल ही न सके /

धूप दीप तुलसी शंख की आवाज़े हमें बुलाये हर बार
न जाने क्या नमी है चाह कर जल ही न सके  /

सुलगती  हैं धीमी धीमी लौ से कोई आग सीने में
सारी नदी  है आगे, इक बूंद भी निगल न सके/

बिल्लोरी बदन ले के जाएँ  कहाँ पत्थर के शहर में
ख़ूबसूरत ख्वाबों से,खुद को बदल ही न सके/

खुद से बाहर कभी,यूँ  निकल ही न सके/
---- शांतनु सान्याल

धुँध की गहराइयाँ

धुँध की गहराइयाँ या निगाहों का धोखा
लौटतीं सदाओं ने क्यूँ राह मोड़ लिया

उफ़क़ के पार थे वो सभी कांच के ख़्वाब
बर्फ़ के नाज़ुक परतों में हमें छोड़ दिया,

क़दमों के नीचे था आसमां या झील कोई
चाहा दिल से खेला फिर उसे तोड़ दिया,

इक पुल जो सदियों से था हमारे बीच
पलक झपकते उसे कहीं और जोड़ दिया,

सीने में कहीं है इक गुमशुदा नदी
बहती लहरों का रूख़ तुमने मोड़ दिया,

रेत के वो तमाम घर ढह गए शायद
बड़ी बेदर्दी से जिस्त, तुमने मरोड़ दिया,
लौटतीं सदाओं ने क्यूँ राह मोड़ लिया ,

- - शांतनु सान्याल

ग़ज़ल - - बरसना है तो बरस जाओ

आसमां है कुछ आज मुंह फुलाए, घने बादलों में रुख छुपाये 
बरसना है तो बरस जाओ भी, थम थम के क़हर गिराया न करो,
लटों में उलझ जाती हैं, उमर खय्याम की ख़ूबसूरत रुबाइयाँ 
कांप से जाये है तुम्हारे लब, घबरा के नज़र मिलाया न करो ,
बिखरना ही है ग़र तो समंदर की तरह साहिल को ज़ब्त करें 
मंझधार से उठे लहर की तरह, करीब आ ठहर जाया न करो,
हमने रस्मे उलफ़त, बड़ी खूबी से निभाया, ईमान की मानिंद
संगसार नहीं ये  सर्द बूंदें, हलकी बारिश में यूँ डर जाया न करो, 
निकलो भी कभी खुले मौसम में, खिलते हुए बहार की तरह,
चिलमन से झांकते हुए जाने जाँ, फूलों में रंग भर जाया न करो,
बरसना है तो बरस जाओ भी, थम थम के क़हर गिराया न करो, 
--- शांतनु सान्याल  

01 दिसंबर, 2010

अग्नि वृत्त

कुछ आकृतियाँ शैल चित्रों की तरह जीवन भर अर्थ
की खोज में भटकती हैं, व्यक्तित्व के परिधि में,
त्रिज्या थे वो सभी भावनाएं केंद्र बिंदु को भेद गईं
ज्यामितीय संकेतों ने छला, जीवन गणित था या
कोई महा दर्शन, हम तो केवल छद्म रूपी शतदल
में यूँ उलझ के रह गए कि निशांत का पता न चला,
क्षितिज के आँखों से जब काजल धुले, समुद्र तट
बहुत दूर किसी अपरिचित दिगंत में खो चुका,
प्रतिध्वनियाँ लौट आईं अक्सर हमने तो आवाज़ दी,
किसने किसका हाथ छोड़ा, कौन कहाँ खुद को जोड़ा
बहुत मुश्किल है,समीकरणों का शून्य होना -
किस के माथे दोष मढ़े हमने स्वयं अग्नि वृत्त घेरा,
- - शांतनु सान्याल

क्षणिका - - अरण्य पथ

अरण्य पथ में कुछ किंसुक कुसुम अब तक
पड़े हैं बिखरे, विगत  मधुमास की निशानी
पग चिन्हों तले  कहीं दबे हैं निसर्ग अर्घ्य
या भावनाएं, जीवन तो है लहर अनजानी
मैं डूब जाऊं उस नेह में हर बार हर जनम
प्रीत की गहराइयाँ हैं उनमें जानी पहचानी /
-- शांतनु सान्याल

29 नवंबर, 2010

क्षणिका - - सजल नयन

सजल नयन थे ढूंढ़ न पाए हम तुमको
कुहासे  में ढक चुकी थीं पुष्प वीथिका,
अभिसारमय थे निशीथ व ज्योत्स्ना
खिले थे हर दिक मालती व यूथिका,
कण कण में थे ज्यूँ सोमरस घुले हुए
रौप्य या स्वर्ण रंगों में थी मृतिका,
विचलित ह्रदय एकाकी हंस अकेला
टूट बिखर जाय जैसे कोई वन लतिका,
-- शांतनु सान्याल

आत्मसात

शंख, सीप,रेत कण, शल्क की उतरन
समुद्र तट  था या वक्ष स्थल हमें ज्ञात नहीं
लवणीय प्रांतर अथवा पलकों से झरे थे
चाँदनी, हमने तो सर्वस्व आत्मसात किया
जो भी अवशेष थे आलिंगनबद्ध रहे, निःशब्द
हम दग्ध पाओं से चलते रहे किसी के
पद चिन्हों में, सप्तपदी के मन्त्रों की तरह
उच्चारित थे सागर उर्मि, अग्नि साक्षी थे
निशाचर पक्षी या अंतर्मन की छाया
तुमने जिस तरह चाहा हमने उसी दिशा में
मेघ की भांति अपने आप को बरसाया
हाड,मांस, रुधिर, स्नायु तंतु जो भी
देह के पांथशाला में थे, हमने प्रतिपल उन्हें
प्रतिदान किया, अब और कौनसा क्षितिज
छूट गया  हमें तो मालूम नहीं, ह्रदय झील
में अब क्यूँ बिम्ब हैं कुछ चाँद के उदास
हमने तो जीवन को गहरा रंग दिया
तुमने क्यूँ अपना मुख फेर लिया //
-- शांतनु सान्याल

28 नवंबर, 2010

नीबू के फूलों की महक

नीबू के फूलों की महक ले के 
शाम उतरी है फिर धीरे धीरे 
छत मेंअभी तक फैले हैं कुछ 
प्रीत के सपने बेतरतीब, रंगीन 
कपड़ों की तरह, हवाओं में 

लहराते हुए, रात गए तुमने 
उन्हें उतारा और बिस्तर में 
फिर बिखेर दिया कल के लिए 
काश सुबह से पहले उन्हें तह 
कर दिया होता, इक धुली सी 
भीनी भीनी खुशबू रह गई 
होती, सलवटों में कहीं खो 
सी गईं वो नफ़ासत, अब तो 
फिर से नए सपनों को धो कर 
जिंदगी के रस्सियों में पुनः 
फैलाना होगा, भीगे भावनाओं 
को नर्म धूप में सुखाना होगा /
-- शांतनु सान्याल 


25 नवंबर, 2010

पारदर्शी प्याला - ग़ज़ल

मैंने खुद ही पिया है पारदर्शी प्याला विष या सलिल जो भी हो,
सलीब पे ज़िन्दगी कब थी आज़ाद प्यास है सृष्टि की आग,
इश्क़ का रंग भी है पानी की तरह जीस्त को हासिल जो भी हो,

वो तमाम चेहरे बन कर आएं हैं फिर रहनुमा या तमाशाई ?
दिल तो मोहरा बन चुका अब आसान या मुश्किल जो भी हो,

न पूछ दीवानगी, ज़हर पियूं ग़र मैं, तुम नीलकंठ बन जाना,
हमने हयात-ऐ- फ़िरदौस जी ली मुख़्तसर या तवील जो भी हो,

लोग क्यों किस्तों में करते हैं खुशियाँ तलाश, लम्हा दर लम्हा,
हमने बाँहों में समेट ली ऐ दुनिया दर्द- ए - मुस्तक़बिल जो भी हो,
- -  शांतनु सान्याल
 

न मुश्किल हो

न देखो मेरी जाँ इस तरह कि मानी में ज़िन्दगी मुश्किल हो
बड़ी ख्वाहिस से हमने अक़ीदत क़बूल किया सभी के सामने 
कुछ तो भरम रहने दो ख़ुदा का,कुछ तो बंदगी मुश्किल हो,
आसां नहीं इतना कि हम भुला दें हर शै को तुम्हारी ख़ातिर
इतना क्यों मौसम ने रंग बिखेरा कि अब सादगी मुश्किल हो,
इस क़दर न चाहो मुझे कि टूटने का खौफ़ रहे साया बनकर 
नज़दीकियाँ न बने जंज़ीर , न मासूम आवारगी हो मुश्किल, 
ये निगाहों का हिसाब है बहुत गहरा, जी अक्सर घबरा जाये
दिल चाहे क़ायनात से ज़ियादा,न कहीं अदायगी मुश्किल हो,
--- शांतनु सान्याल


एक बूंद

वो एक बूंद जो पलकों से टूट कर
पत्थरों में गिरा, ज़माना गुज़र गया

तुम्हें याद हो, कि न हो वो  लम्हात
मगर पत्थरों के बीच वो ज़ब्त हो गया
सदियों से लेखक, कवि या शायरों ने
तलाशा उसे, उत्खनन किया रात दिन
वो घनीभूत अश्रु न जाने किस किस रूप
में लोगों ने देखा, और महसूस किया
कल्पनाओं के रंग भरे चित्रकारों ने
जौहरियों ने खुबसूरत नाम दिए
माणिक, मुक्ता न जाने क्या क्या
कैसे समझाऊं वो बूंद तो पलकों से
गिरा ज़रूर, ये हकीक़त है लेकिन
वो अब तलक मेरी दिल की पनाहों
में है मौजूद, काश कोई देख पाता उसे /
-- शांतनु सान्याल 

24 नवंबर, 2010

नज़्म - - मासूम आँखें

ख़्वाब, एक अजनबी की तस्वीर
और कुछ टूटे प्याले, मैंने
रखे हैं  संभाले, किसी
मिल्कियत की
तरह,
सहम से जाये है ज़िगर जब
अल्बम को छुए  कोई,
ज़िल्द की खूबसूरती
इतनी कि  लोग
समझे,
पुराने पन्नों में है ज़िन्दगी
के आबसार निहाँ,
न पलटों मेरी
जाँ, परतों
को इस
बेदर्दी से कि भूले लम्हात
को समेटना हो मुश्किल,
बड़े ही जतन से
परत दर
परत
हमने किसी की निशानी
सुलगते सीने के तहत
दबाये रखा है,
ढलती
दुपहरी दौड़तीं है नाज़ुक
धूप की जानिब
तितलियाँ
उडी  जा
रहीं हों जैसे दूर तलक
उदास हैं किसी बच्चे
की मासूम आँखें,
तकता है वो
खुली
हथेलियों को कभी, और
कभी देखता है
ख्वाबों को
धूमिल
होते,
- -  शांतनु सान्याल

23 नवंबर, 2010

लेकिन

धूप खिली है वादियों में संदली, लेकिन
अँधेरा है अब तलक पहाड़ियों के दूसरी तरफ
बादलों ने उन्हें क्यों दर किनार किया
ख़्वाब बोये थे हमने तो मुहोब्बत के
दोनों ही ढलानों में एक से,
आदम क़द थे वो तमाम आईने
उम्र ही न बढ़ पायी या
हम आईना देखना ही भूल गए,
क्यूँ छोड़ दिया तुमने मुहोब्बत का चलन
सूने झूलों में झूलती है अभी तलक वो यादें
घर से निकले थे हम साथ साथ
मेले के भीड़ में उंगली पकड़ना ही  भूल गए ,
न तुमने  तलाशा हम को, न हम ही खोज पाए
उम्र तो गुज़र गयी इसी उलझन में
रात है गहराई, हम चिराग़ जलाना ही  भूल गए,
 रिश्तों की कमी न थी, लेकिन
हम अपना बनाना ही  भूल गए /
-- शांतनु सान्याल

22 नवंबर, 2010

नज़्म - - बहोत मुश्किल है

बहोत मुश्किल है किसी के लिए
खुद को यूँ ही तबाह करना
परेशां नज़रों से न देखो
आसाँ नहीं दिल को अथाह करना
डूब जाएँ किनारों  की ज़मीं
इस तरह बहने की चाह  रखना
नाज़ुक हैं कांच के रस्ते
धीरे  ज़रा प्यार बेपनाह करना
मौसमी फूलों से न हों मुतासिर
इश्क़ मेरी जाँ बारहों माह करना
खला के बाद भी है  कोई दुनिया
हर जनम में मिलने की चाह रखना -
- - शांतनु सान्याल

21 नवंबर, 2010

ग़ज़ल - - ग़र चाहो तो जवाब दे देना

तुम मिलो तो  सही किसी मोड़ पे, पुराने वो सभी हिसाब ले लेना

बरसती हैं रहमतें, हम  भी अपना आँचल उम्मीद से फैला गए

इक मुद्दत से लिखी हैं बेसुमार ख़त,  ग़र चाहो तो जवाब दे देना /

हर एक लफ्ज़ में छुपे हैं हज़ारों फ़लसफ़ा-ऐ -तिश्नगी ऐ दोस्त

फ़लक है महज इक ख़याल, ज़मीं, सितारे ओ महताब ले लेना/

जिस्त की ओ तमाम मरहले हैं, किसी वीरां अज़ाब की मानिंद

शीशा है टूट जाए तो क्या, इक नया गुलदान-ऐ-ख़्वाब दे देना /

मंदिर की वो तमाम सीढियाँ, वक़्त की नदी निगल सी गई

उम्र गुज़ार दी हमने इबादत में, चलो तुम ही सवाब ले लेना /

परछाइयों से पूछते हैं अक्सर हम अपना ठिकाना दर-ब-दर

मिलो तो सही इक बार, बदले में यूँ ही  ज़िन्दगी नायाब ले लेना /

उठती हैं ज़माने की नज़र हर जानिब, ज़हर बुझे तीरों की तरह

शिकार हों न जाएँ किसी के ज़द में कहीं, दर्द-ऐ-शराब दे देना /

तुम मिलो तो  सही किसी मोड़ पे, पुराने वो सभी हिसाब ले लेना/

 -- शांतनु सान्याल

20 नवंबर, 2010

शबनम की तरह बिखर जाएँ

रजनीगंधा के गुच्छों में शबनम की तरह बिखर जाएँ,
चाँदनी रात है,  दूर तलक बिछे हैं, हसरतों के मोती,
खुशबू-ऐ-जिस्म है या शाख-ऐ-गुल, जी चाहे निखर जाएँ ।
किसी की धडकनों में छलकती हैं मधु बूंदों की खनक, 
इक नशा है, छाया शब्-ऐ-तन्हाई में चाहे जिधर जाएँ,
नज़्म ओ ग़ज़ल, गीत ओ संगीत, राहों में हैं  बिखरे पड़े
किसी के क़दमों तले मौजें हैं रवाँ, दिल चाहे संवर जाएँ,
रात के पखेरू तकते हैं, उनींदी आँखों से बार बार हमको,
 सागर के सीने में कौंधती हैं, बिजलियाँ ज़रा ठहर जाएँ,
कश्तियाँ भूल गये रस्ते, चाँद भटके है  मजनू की तरह,
आसमां ओ ज़मीं के दरमियाँ, शिफर को इश्क़ से भर जाएँ,
इस रात की गहराइयों में चलों खो जाएँ सुबह से पहले,
छु लो  यूँ ही  बेखुदी में, कहीं  शाखों से न  सभी फूल झर जाएँ ।
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 शांतनु सान्याल

17 नवंबर, 2010

नज़्म - - एक आहट





 
कुछ दूरियां रहे बरक़रार, कि बेखुदी में खुद को न भूल जाऊं मैं
लरज़ती बिजलियाँ, शाखों से गुल गिरते हैं, हसीं अंगडाई की तरह
शायद लम्बी है ख़ुमारी, कि नशे में हर जुर्म कुबूल न जाऊं मैं
हर एक आहट में, हजारों हसरतें, हसरतों में ज़िन्दगी भटके यूँ ही
जुनूँ के हद से तो निकल आऊं, फाँस-ऐ-इश्क मेंकहीं न झूल जाऊं मैं
ज़िन्दगी की कश्मकश में, खुद का वज़ूद, न समेट पाया कभी
किसी की चाहत में ऐ दोस्त, कहीं चेहरा अपना ही न भूल जाऊं मैं ।
-- शांतनु सान्याल

16 नवंबर, 2010

अनल पथ यात्रि


वो सभी थे कभी महा अनल पथ यात्रि

हाथों में हाथ लिए, वृन्द चीत्कार के मध्य

गहन अन्धकार हो या पुलकित निशीथ

हास्य व् क्रंदन, कभी उच्च प्रतिकार के मध्य

वो थे आग्नेय अरण्य के अनाम वासी

धर्म-अधर्म के बाहर, मानव विचार के मध्य

वो तुमुल प्रणय के साक्षी, सृष्टि के निर्माता

महोत्सव जय गान मेंथे, कभी हाहाकार के मध्य

एक विशाल विह्ग वृन्द, उड़ गये जाने कहाँ

जर्जरित नभ में थे वो, कभी सिंह द्वार के मध्य

कोई उदासीन नेहों से तकता शून्य नीलाकाश

वो यात्रि न जाने कब लौटेंगे इस संसार के मध्य/

-- शांतनु सान्याल

नज़्म - - वो कल भी आज रहा

वो कौन है जो ज़िन्दगी भर साथ रहा
ख़ुशी ओ ग़म का मेरा हमराज़ रहा
वो तमाम ख़त यूँ तो जला दिए मैंने
न भूल पायें वो लरज़ता साज़ रहा
कोई पुराना ढहता महल था शायद
कभी कराह कभी मीठी आवाज़ रहा
रुख़ मेरा अब परछाई नज़र आये
वो कभी ख़्वाब, हसीं परवाज़ रहा
उसे भूल जाने का क़दीम अहद
तोड़ा न गया वो कल भी आज रहा -
--- शांतनु सान्याल

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