अदृश्य त्वम् रूप
पृथ्वी व् आकाश मध्य है, अन्तर्निहित
अविरल प्रवाहित त्वम् रूप माधुर्य अनंत,
अदृश्य करुणासागर सम कभी वृष्टि रुपी
तुम जाते हो बरस, कभी शिशुमय क्रंदन,
धूसर मेघों को दे जाते हो पल में मधु स्पर्श,
तृषित धरा के वक्ष स्थल पर हो तुम ओष
बिंदु, हे अनुपम !अश्रु जल में भी समाहित,
त्वम् दिव्य आलोक निमज्जित सर्व जीवन,
झंझा के विध्वंस अवशेषों में भी तुम हो एक
आशा की किरण, ज्यों प्लावित भूमिखंड
में उभर आयें आग्नेय शैल बारम्बार,
इस गहन अंधकार में हो तुम दिग्दर्शक
कभी खंडित भू प्रस्तर से सहसा हो प्रगट,
कर जाते हो अचंभित, भर जाते हो प्रणय सुधा,
--- शांतनु सान्याल
painting by - Jone Binzonelli
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