07 जनवरी, 2011

स्मृति मेघ

वो श्यामपट अब भी है मौजूद
वही खपरैलों वाली प्राथमिक पाठशाला
जहाँ हमने लिखी थीं बारहखड़ी
उस अरण्य गाँव में हमने सीखी थीं
हिंदी वर्ण माला, पढ़ी थीं -
रसखान और कबीर, हमें याद है
अब तक निराला की - वर दे वीणावादिनी,
 नंगे पांव हमने की थीं प्रभात फेरी,
 उस आम्र कुञ्ज के नीचे न तुम थे
हिंदी न हम थे मराठी या बंगाली
माघ की सिहरन में बिछाए टाट पट्टी
हमने दोहराए संस्कृत सुभाषितानि,
तुम्हें याद हो की न हो,हमने देखी थी
एक सी दुनिया, खेले थे -
नदी पहाड़, लुकछुप, संग गाए
 प्रचलित लोकगीत - इतना इतना पानी -
वो सीमाविहीन मधुरिम एक जगत,
वसंत पंचमी में न तुम थे हिन्दू
न हम ही मुसलमान, एक साथ गुथा
फूलों का हार,गाए थे सरस्वती वंदना
उस गाँव भी आज भी उडती है
धान की ख़ुश्बू हवाओं में,
सरसराते हैं गन्ने के फूल, गोधूली में
अक्सर उड़ते हैं रंगीन स्मृति मेघ
कहीं न कहीं वहीँ आसपास हमारी साँसें
आज भी तकती हैं उस नन्हीं सी नदी को
किसी नई आश लिए -
--- शांतनु सान्याल 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past