जीवन किसी तरह भी जी न सके
बिहान से पहले बिखर गए निशि पुष्प
अर्धअंकुरित बीजों में थी नमी दो पल,
अंजनमय मेघ, शपथ भूल गए,
टूटती सांसों का इतिहास कहीं भी नहीं,
सजल नेहों ने पतझड़ को द्वार
खटखटाते पाया, जीवन व्यथा अपने
आप ही भर जाये इस उम्मीद से,
उड़ते पत्तों का मनुहार मन में लिए,
मरुस्थल में असंख्य प्रसून सजाया -
फिर से आँगन में डाली प्रणय रंगोली
दर्पण की धूल हटाई निमग्न हो कर
खुद को संवारा हमने, रक्तिम साँझ को
आना है, आये, यमन रुपी ज़िन्दगी को,
दुख हो या सुख हमने तो हर पल गाया,
ये और बात है कि तुम स्वरलिपि बन न
सके, हम जीवन किसी तरह जी न सके !
--- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें