07 अप्रैल, 2021

मायावी बंद संदूक - -

खोल न पाएंगे दुर्ग द्वार किसी तरह,
चाहे जितना भी बढ़ा लें हम क़द
अपना, नियति ने फेंक दी
है चाबियों का गुच्छा,
पोखर में कहीं,
तैरता है
टूटा
हुआ बिहान का सपना, चाहे जितना
भी बढ़ा लें हम क़द अपना। उम्र
भर हम ने छीनी है ग़र हक़
पराया, चौक पर कुत्तों
को बिस्कुट खिलाने
से अब क्या
फ़ायदा,
चाहे
दाने चुगाओ कबूतरों को, या चीटियों
को कराओ मधु पान, अतीत के
पृष्ठ नहीं बदलते, वो सभी
बंद हैं दराज़ में, मुद्दतों
से बाक़ायदा, जो
कुछ लिखा
जा चुका
है उसे
मुश्किल है अब बदलना, चाहे जितना
भी बढ़ा लें हम क़द अपना। उस बंद
दिव्य द्वार के अन्तःस्थल
में क्या है, किसे मालूम,
फिर भी हर कोई
चाहता है उसे
खोलना,
कोई
कोहरे की है वो ज़मीं, या शून्य के सिवा
कुछ भी नहीं, आलोक स्रोत का है
कोई उद्गम स्थल या स्वयं
को अंधकार में है अविरत
टटोलना, उस परम
सत्य के आगे
हर हाल
में है
हमें झुकना, चाहे जितना भी बढ़ा लें - -
हम क़द अपना।

* *
- - शांतनु सान्याल    

 

18 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 07 अप्रैल 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. चौक पर कुत्तों
    को बिस्कुट खिलाने
    से अब क्या
    फ़ायदा,
    चाहे
    दाने चुगाओ कबूतरों को, या चीटियों
    को कराओ मधु पान, अतीत के
    पृष्ठ नहीं बदलते, वो सभी
    बंद हैं दराज़ में,
    सही कहा ...बहुत ही सुन्दर, सार्थक भावाभिव्यक्ति।

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  3. परम सत्य के आगे झुकना है ... विधि का विधान लिखा जा चूका .. सटीक .

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (०८-०४-२०२१) को (चर्चा अंक-४०३०) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।

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  5. जो घंटी एक बार बज जाए, वह अनबजी कैसे हो सकती है शांतनु जी ? ज़िन्दगी कोई कम्प्यूटर का अनडू कमांड थोड़े ही है । आपकी अभिव्यक्ति बिल्कुल सही है ।

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