एक सरसरी नज़र से उसने मुझे देखा और सिरे से नज़रअन्दाज़ कर गया,
दरअसल इस में उस शख़्स का
कोई दोष नहीं, हम अपना
पुरातन धूसर शल्क
अब तक उतार
न पाए, वो
अपना
फ़र्ज़
निभा गया, हम अपना परिचय पत्र
ढूंढते रह गए, बड़ी ख़ूबसूरती
से हमें प्रतिध्वनि विहीन
आवाज़ कर गया,
एक सरसरी
नज़र से
उसने
मुझे देखा और सिरे से नज़रअन्दाज़
कर गया । उस मंच की सीढ़ियां
पहुंचती हैं सरीसृपों के देश
तक, मेरे पृष्ठवंशों को
झुकने की आदत
न थी बस इसी
विरोधभास
ने मुझे
अपने शहर में अजनबी बना दिया,
न कोई अभ्यर्थना, न कोई
मिथ्या स्तुति, आईने ने
वक़्त रहते मुझे
एक अदद
अगले
दर
का परिचयहीन आदमी बना दिया,
मुद्दतों से चाहता रहा कि इस
अमूल्य मिट्टी से यूं ही
जड़वट जुड़ा रहूँ,
बहुत अंदर
तक, वो
न चाह
कर
भी मुझको उम्रदराज़ कर गया, एक
सरसरी नज़र से उसने मुझे देखा
और सिरे से नज़रअन्दाज़
कर गया ।
- - शांतनु सान्याल