27 मार्च, 2025

पुनर्प्राप्ति - -

अस्तगामी सूर्य के साथ डूब जाता है विगत काल,

धीरे धीरे सभी स्मृतियां, अंध घाटियों में हो
जाती हैं विलीन, क्रमशः जीवन बढ़
चला है धूसर पथ से हो कर
अंधकारमय गुफाओं
में, यहीं से आत्म
खोज का
होता है
आरंभ,
बिखरे पड़े हैं चारों तरफ देह के बाह्य - अंतर्वस्त्र,
निःशब्द कर जाता है फिर से दर्पण का
सवाल, अस्तगामी सूर्य के साथ
डूब जाता है विगत काल ।
आदिम युग से बहुत
जल्दी लौट आता
है अस्तित्व
मेरा
पुनः समेटता है बिखरे हुए अंग प्रत्यंग के खोलों को, रखता है सहेज कर एक एक संवेदनाओं
को उनके अंदर किसी सीप की तरह,
रात्रि सहसा बढ़ चली है गहन
सागरीय मायांचल की
तरफ, एक अदृश्य
स्पर्श मुझे कर
जाती है
शापमुक्त, देह के क्षत विक्षत अंग फिर भर चले हैं
आहिस्ता आहिस्ता, पुनः जी उठा हूँ मैं इस
पल सब कुछ खूबसूरत है बहरहाल,
अस्तगामी सूर्य के साथ डूब
जाता है विगत
काल ।
- - शांतनु सान्याल



19 मार्च, 2025

आहत प्रहरी - -

गली के उस पार से उठा बवंडर दूर तक

धुआं फैला गया, बिखरे पड़े हैं हर
तरफ पत्थरों के टुकड़े, और
आदिमयुगीन बर्बरता के
निशान, चेहरे में भय,
आतंक के साए,
टूटे हुए मंदिर
के कपाट,
शहर
की हवाओं में जाने कौन ज़हर बिखरा
गया, गली के उस पार से उठा
बवंडर दूर तक धुआं फैला
गया । कल शाम शहर
में था भेड़ियों का
अप्रत्याशित
आक्रमण,
सांध्य
पूजा
के पहले मृत्यु का आमंत्रण, प्रहरी भी
थे बेपरवाह अपने आप में निमग्न,
हिंस्र पशु नोचते रहे निरीह
मानव अंग, कुछ देर यूँ
लगा हम आज भी
जी रहे हैं मध्य
प्रस्तर युग
में कहीं,
मुद्दतों से शांत धरातल को सहसा कोई
दहला गया, गली के उस पार से
उठा बवंडर दूर तक धुआं
फैला गया । हर कोई
सोचने को है
मजबूर
कि
वन्य पशुओं से ख़ुद को कैसे बचाया
जाए, बस इसी एक बिंदु पर
गुज़रा हुआ कल अंदर
तक अदृश्य अनल
सुलगा गया,
गली के
उस पार से उठा बवंडर दूर तक धुआं
फैला गया - -
- - शांतनु सान्याल

17 मार्च, 2025

मन दर्पण - -

उम्र की ढलान पर है शून्यता की छाया,

पिंजर द्वार हैं उन्मुक्त, विहंगम नभ
फेंक रहा उड़ान पाश, फिर भी
मन पाखी नही चाहता
छोड़ना बंदीगृह,
बहुत कठिन
है छोड़ना
सभी मोह माया, उम्र की ढलान पर
है शून्यता की छाया । मंदिर घाट
की सीढ़ियों से उतर कर जल
स्पर्श द्वारा सिंधु पार की है
कल्पना, काश सहज
होता फल्गु नदी
के पार देह
का नव
रूप
में ढलना, हज़ार बार देखा मन दर्पण
वही बिम्ब धूसर, वही माटी की
काया, उम्र की ढलान पर
है शून्यता की छाया ।
- - शांतनु सान्याल

16 मार्च, 2025

अन्तःप्रवाह - -

जन अरण्य में खोजता हूँ एक अदद

परछाइयों का चेहरा, न जाने
कहाँ खो गए चाहने वालों
की जमात, एक मृग -
तृष्णा से कुछ
कम नहीं
ताउम्र
साथ रहने की बात, किताबों में यूँ
तो बहुत कुछ लिखा था, मरु
उद्यान से ले कर स्वर्ग की
अप्सराओं के असंख्य
किस्से, यहाँ भी हैं
एकाकी वहाँ
भी पसरा
हुआ
है सघन कोहरा,जन अरण्य में
खोजता हूँ एक अदद
परछाइयों का
चेहरा ।
इस
राह के मुसाफ़िर का सफ़र कभी
नहीं होता पूरा, गन्तव्य से भी
कहीं आगे है यायावर
यात्रियों का डेरा,
फिर भी जी
चाहता है
कि
तुम चलो मेरे संग दूर तक, अंतिम
प्रहर तक थामे रखो निःश्वास
बंधन, अभी तक क्षितिज
पर है अंधेरे का शख़्त
पहरा, जन अरण्य
में खोजता हूँ
एक अदद
परछाइयों
का
चेहरा । सहस्त्र अभिलाष अंतहीन
स्वप्न के रेगिस्तान, बहोत कुछ
पाने की चाहत का होता
नहीं कोई अवसान,
कभी ज़रा सी
चीज़ पर
मिल
जाए खोया हुआ ख़ज़ाना, और
कभी बहुत कुछ मिलने के
बाद भी जीवन लगे
अनंत वीराना,
शून्य के
अंदर
ही
रहता है गुमशुदा कोलाहल, ख़ुद
के भीतर ही रहता है मौजूद
एक झील अथाह गहरा,
जन अरण्य में
खोजता हूँ
एक
अदद परछाइयों का चेहरा ।
- - शांतनु सान्याल

11 मार्च, 2025

शाश्वत सत्य - -

मध्य रात्रि, निस्तब्ध सारा शहर,

बिखरे पड़े हैं प्राचीर के
पुरातन पत्थर,
बाह्य परत
पर बूंद
बूंद
ओस कण, गहन अंतरतम में तुम
बांध चुके हो स्थायी घर, मध्य
रात्रि, निस्तब्ध सारा
शहर । चिर बंदी
होना चाहे
सदियों
का
बंजारापन तुम्हारे वक्षःस्थल के
अंदर, शिराओं से हो कर
बहता जाए प्रणय
रस, अनंत
पथ की
ओर
अग्रसर, देह प्राण डूब चले हैं
क्रमशः, सुदूर खींचे लिए
जाए निःसीम तुम्हारे
नयन गह्वर, मध्य
रात्रि, निस्तब्ध
सारा
शहर । न तुम अब तुम हो न मेरा
कोई पृथक अस्तित्व, एक
दूजे से मिल कर अब
हैं एकाकार, अपने
लिए इस पल
में नारी
पुरुष
सब
एक बराबर, अधरों के मिलन बिंदु
पर जीवन रहता है अजर
अमर, कोई भेद नहीं
इस क्षण क्या
सुधा और
क्या
प्राणघातक ज़हर, मध्य रात्रि,
निस्तब्ध सारा
शहर ।।
- - शांतनु सान्याल

02 मार्च, 2025

सुदूर कहीं - -

 

उनिंद से हैं बोझिल सितारों की सुदूर अंजुमन,

रात ढले महकना चाहे बेक़रार दिल का चमन,

प्रसुप्त कोशिकाओं में सजलता भर गया कोई,
न जाने कौन मधुऋतु की तरह छू गया अंतर्मन,

हवाओं में है अद्भुत सी मंत्रमुग्धता का एहसास,
वन्य नदी के किनार फिर खिल उठे हैं महुलवन,

एक मायावी तरंग जो शरीर से रूह तक है उतरे,
इक संदली स्पर्श जो कर जाए नम जीवन दहन,

हर तरफ हैं अनगिनत बंदिशों के पाषाणी दीवार,
जाने कौन खिंचे लिए जाए अपने साथ ज़बरन ।
- - शांतनु सान्याल

24 फ़रवरी, 2025

अदृश्य बिम्ब - -


अपने अंदर छुपे हुए ग्रंथि का आविष्कार करें,

प्रतिबिंबित परिभाषा को दिल से स्वीकार करें,

न तुम हो पारसमणि न मैं कोई शापित पाषाण,
दर्पण को रख सर्वोपरि आपस में व्यवहार करें,

मिट्टी का देह ले कर पत्थर के शहर में रहना है,
ज़रा सी चोट से सहम जाएं इतना न प्यार करें,

निगाहों की पट्टियां न खुले तराज़ू के झोंकों से,
हृदय तल के खंडित मंदिरों का पुनरूद्धार करें,

एक ही असमाप्त पथ के हम सभी हैं सहयात्री,
दुःख सुख के साए में टूटे स्वप्नों को साकार करें,
- - शांतनु सान्याल


21 फ़रवरी, 2025

पलाश पथ - -

शून्यता के भीतर जो अदृश्य लहर हैं मौजूद

उसी अंध- प्रवाह में तुम्हें करता हूँ मैं तलाश,

भीड़ में खो जाने की कला ही है जिजीविषा
फिर भी लौट आता हूँ अंततः तुम्हारे ही पास,

आकाशगंगा की तरह है चाहतों का अंतरिक्ष
देह - प्राण से हो कर गुज़रता है प्रणय प्रवास,

अक्सर ख़ुद को भुला करते हैं अन्य को याद
दस्तक नहीं होती बस आगंतुक का है क़यास,

इसी पल में निहित है सभी ऋतुओं का आनंद
उल्लसित हृदय के लिए हर दिन रहे मधुमास,

सीमित विकल्प हैं फिर भी गुज़रना है लाज़िम
जीवन के सफ़र में हमेशा नहीं खिलते पलाश ।
- - शांतनु सान्याल

14 फ़रवरी, 2025

राहत - -

उस गलि के अंत में दिखता है डूबते सूरज का मंज़र,

बेइंतहा चाहतें हैं बाक़ी बेक़रार दिल के बहोत अंदर,

उन सीढ़ियों के नीचे उतरना है हर एक को एक दिन,
अभी से क्यूं जाऊं उधर अभी ज़िन्दगी है बहोत सुंदर,

निगाहों में कहीं बहती है इक उजालों की  स्रोतस्विनी,
मंज़िल ख़ुद हो जब रुबरु क्यूं कर भटकूं इधर - उधर,

उष्ण दोपहर में भी उस का स्पर्श बने चंदन की परछाई,
उम्र भर का खारापन सोख ले पल भर में प्रणय समंदर,

लौट आएंगे सभी एक दिन ख़ुद से भागे हुए बंजारे लोग,
दिल के सिवाय राहत कहीं नहीं  फ़क़ीर हो या सिकंदर ।
- - शांतनु सान्याल



05 फ़रवरी, 2025

अनुत्तरित - -

ताशघर की तरह बिखरे पड़े हैं कांच के ख़्वाब,

आईना चाहता है नीरव पलों के उन्मुक्त जवाब,

आख़री पहर रात का जिस्म उतर गया सूली से,
भोर से पहले क़फ़न दफ़न हो जाएगी कामयाब,

तमाम नक़ली मुखौटे उतर जाएंगे सुबह के साथ,
हृदय तट पर बिखरे पड़े रहेंगे मृत सीप बेहिसाब,

अख़बार के पन्नों में उसका ज़िक्र कहीं नहीं मिला,
सारे शहर में यूं कहने को था वो इक मोती नायाब,

इस दुनिया का अपना अजीब है रवायत ए इंसाफ़,
एक हाथ में स्वर्ण मुद्रा तो दूजे में है पवित्र किताब,
- - शांतनु सान्याल

04 फ़रवरी, 2025

दृश्यहीन - -

दृश्यहीन हो कर भी तुम जुड़े हुए हो बहोत अंदर तक,

इक नदी ख़ानाबदोश बहती है पहाड़ों  से समंदर तक,


तुम चल रहे हो परछाई की तरह अंतहीन पथ की ओर,

जाग चले हैं एहसास, बियाबान से ले कर खंडहर तक,


ये नज़दीकियां ही जीला जाती हैं अभिशप्त पत्थरों को,

डूबती हुई कश्तियों को खींच लाती हैं संग ए लंगर तक,


न जाने कहाँ कहाँ लोग ढूंढते हैं राज़ ए सुकून का रास्ता,

लौटा ले जाती हैं वो ख़ामोश निगाहें मुझे अपने घर तक,


इक अद्भुत सी मंत्रमुग्धता है उसकी रहस्यमयी छुअन में,

राहत ए मरहम हो जैसे कोई सुलगते क़दमों के सफ़र में ।

- - शांतनु सान्याल











25 जनवरी, 2025

ज़िन्दगी - -

न जाने कितने बिंदुओं पर भटकती है ज़िन्दगी,

शमा की तरह लम्हा लम्हा सिहरती है ज़िन्दगी,

लौट चुके हैं, सभी चाहने वाले अपने अपने घर,
किसी की याद में भला कहाँ ठहरती है ज़िन्दगी,

मंदिर ओ नदी के दरमियां फ़ासला कुछ भी नही,
जलस्पर्श के लिए मुश्किल से उतरती है ज़िन्दगी,

सारा शहर ख़्वाब की दुनिया में है कहीं खो चुका,
तन्हा दूर जाने किस आस में निकलती है ज़िन्दगी,

वीरां राहों में साया के सिवा कोई संग नहीं चलता,
नग्न - सत्य के परिधानों में तब संवरती है ज़िन्दगी,

भष्म की ढेर में, न जाने कौन मेरा जिस्म तलाशे है,
जितना कुरेदो वजूद को उतना बिखरती है ज़िन्दगी,
- - शांतनु सान्याल

22 जनवरी, 2025

उपशम - -

वेदना और मस्तिष्क के मध्य समझौता

ही जीवन का खूबसूरत उपशम है,
जो नयन कोण में थम कर
जीने का राज़ कह जाए
वही बूंद असली
शबनम है,
वो टूट कर बिखर गया किसी आदिम
सितारे की तरह उसका ग़म है
बेमानी,जो दिखाई ही न
दे उसकी तलाश में
है ये सारी दुनिया,
जबकि मुझे
चाहने
वाला
मेरे दिल की गहराई में हरदम है, वो
डूब कर छूना चाहे मुक्ति द्वार के
कपाट, मैं ख़ुद से उभर कर
चाहता हूँ उसे छूना,
आसपास यूँ तो
कोई नहीं,
फिर
भी न जाने क्यूं लगता है, कोई तो यहां
हमक़दम है, हमारे दरमियान कुछ
भी नहीं गोपनीय, देह प्राण
सब कुछ है एकाकार,
एक अखण्ड
दहन में
जल
रहे हैं हम सभी, और हाथ तुम्हारे चिर
शांति का मरहम है, जो नयन
कोण में थम कर जीने
का राज़ कह जाए
वही बूंद असली
शबनम है ।।
- - शांतनु सान्याल

30 दिसंबर, 2024

नए दर्पण के पार - -

अनिमेष दृष्टि लिए गुज़रती है रात, सुदूर दूरगामी

रेलगाड़ी की आवाज़ हो चुकी है लुप्तप्राय,
पटरियों के सीने में है दफ़न वक़्त की
कंपन,हम चल रहे हैं ख़ामोश
शताब्दियों से उसी रास्ते
जहाँ जीवन की होती
है अनवरत क्रमिक
उत्क्रांति, हिम
नदी के
वक्षःस्थल से उभरते हैं द्रवित शैल दहन, पटरियों
के सीने में है दफ़न वक़्त की कंपन । वही
प्रागैतिहासिक जीवन नए रूप रंग
नए परिवेश में, शिकार और
शिकारी के मध्य वही
लुकाछिपी, बहुत
कुछ बदलने
के बाद
भी
वही पुरातन हिंस्र आवेश, कौन किसे कैसे ठगेगा
गिरह दर गिरह रहस्य अशेष, सफ़ेद दीवारों
पर काली परछाइयों का वृन्द नर्तन,
पटरियों के सीने में है दफ़न
वक़्त की कंपन, चेहरे
वही हैं चारों तरफ़
सिर्फ़ बदलता
रहा है नए
साल
का मायावी दर्पण, पटरियों के सीने में है दफ़न
वक़्त की कंपन ।
- - शांतनु सान्याल



26 दिसंबर, 2024

मेरा यक़ीन रखना - -

वो ख़्वाब जो अभी तक ज़िन्दा है जुगनू की

तरह तुम्हारी हथेलियों में दे जाऊंगा,
इक सुबह जो मासूम बच्चे की
तरह दौड़ जाता है दूर तक
रंगीन तितलियों के
पीछे तुम उसी
जगह मेरा
इंतज़ार
करना
यक़ीन जानो इक दिन  मैं लौट के वहीं ज़रूर
आऊंगा, वो ख़्वाब जो अभी तक ज़िन्दा
है जुगनू की तरह तुम्हारी हथेलियों
में दे जाऊंगा । वो सभी सूर्य
मुखी चेहरे आकाश के
अभिमुख होंगे, वो
सभी मुरझाए
चेहरे एक
दिन
खिलेंगे सर्दियों की नरम धूप की तरह, सांझे
चूल्हे की तरह हमारे सुख दुःख होंगे,
अप्रकाशित कविताओं की तरह
संग्रहित हैं दिल की गहराइयों
में विप्लवी खनिज के
अनगिनत उजाड़
खदान, कुछ
मूक
श्रमिकों के समाधिस्थ श्मशान, तुम भूल नहीं
जाना पत्थरीली रास्तों पर चलना, मेरा
विश्वास रखो इक दिन तुम्हें क्षितिज
के पार फूलों की वादियों में
ले जाऊंगा, वो ख़्वाब
जो अभी तक
ज़िन्दा है
जुगनू
की तरह तुम्हारी हथेलियों में दे जाऊंगा ।
- - शांतनु सान्याल 

18 दिसंबर, 2024

अंदरुनी जयचंद - -

विलुप्त नदी के तलाश में मिले कुछ

परित्यक्त मंदिर के खंडहर, कुछ
टूटी हुई टेराकोटा की मूर्तियां,
पाटे हुए प्राचीन जल कूप,
जिस के आसपास
आबाद है यूँ तो
पत्थरों का
शहर,
विलुप्त नदी के तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर के खंडहर । बर्बर
आतताई आए, नगर लूटा, घर
जलाए, तलवार के बल से
धर्म बदला, मंदिरों को
तोड़ कर अपने
ईश्वर का घर
बनाया,
लेकिन पुरातन संस्कृति रही अपनी
जगह अजर अमर, विलुप्त नदी
के तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर के
खंडहर । आज
भी वही प्रथा
है जीवित
वही
क़त्ल ओर ग़ारत, आगज़नी, नारियों
पर अमानवीय अत्याचार, सामूहिक
रक्त पिपासा, वही पैशाचिक
वीभत्स अवतार, फिर भी
सीने पर शान्तिदूत का
तमगा लगाए फिरते
हैं, सामाजिक
समानता
की बात
करते हैं, चेहरे पर असत्य अमृत का
लेप, दिल में भरा रहता है ज़हर
ही ज़हर, विलुप्त नदी के
तलाश में मिले कुछ
परित्यक्त मंदिर
के खंडहर ।
आज भी
ज़िन्दा
हैं हज़ारों जयचंद हमारे अस्तित्व के
अंदर ।
- - शांतनु सान्याल

16 दिसंबर, 2024

छायामय - -

अथक, बस बहे जा रहे हैं,

दोनों किनारे चाहते हैं
हमें निगल जाना,
प्रस्तर खण्ड
से टकराते
हुए हमारा वजूद
लिख रहा है रेत पर कुछ नई
कहानियां, हटा रहे हैं हम
कुछ अज्ञात
पृष्ठभूमि
पर
नग्न सत्य की घनी परछाइयां,
अभिलाष का जल तरंग
अब भी बज रहा है
वक्षःस्थल के
गहन में,
शुभ्र
शंख के अंदर छुपा बैठा है
अभी तक जीवंत मोह
तिमिर सघन में,
उभर चले हैं
पुनः
अजस्र बुलबुले जीवन के
धरातल में, बुला रही हैं
हमें स्वप्नमयी अतल
की मायावी अथाह
गहराइयां, हटा
रहे हैं हम कुछ
अज्ञात
पृष्ठभूमि पर नग्न सत्य की
घनी परछाइयां ।
- - शांतनु सान्याल






13 दिसंबर, 2024

रूहानी अनुबंध - -

जी चाहता है बहुत दूर वादियों में

कहीं खो जाना,धुंध भरी राहों
में, बूँद बूँद मुक्कमल बिखर
जाना, तुम्हारी गर्म साँसों
की तपिश में है मंज़िल
ए निशां, इक रूहानी
अनुबंध में हों जैसे
शमअ ओ
परवाना,
डूबता
चला जा रहा है मेरा वजूद अथाह
गहराई में, उस हसीन ख़्वाब
से भला कौन चाहेगा लौट
आना, इस नशीली
एहसास में
ज़िन्दगी
को
क़रार तो मिले, कुछ पल और
ज़रा पास ठहरो फिर चाहे
लौट जाना, यूँही देख
कर बढ़ जाती है
जीने की
शिद्दत
ए तिश्नगी, मंज़िल दर मंज़िल खुल
जाते हैं, निगाह ए मयख़ाना,
जी चाहता है बहुत दूर
वादियों में कहीं
खो जाना ।
- - शांतनु सान्याल

25 नवंबर, 2024

नज़रअंदाज़ - -

पतझर के पत्तों की तरह झर जाते हैं सभी चाहत,

उम्र की गोधूलि में कोई भी साथ नहीं होता,
कुछ संभावनाएं रह जाती हैं शून्य
टहनियों में ज़रूर, जो ख़्वाबों
को मरने नहीं देती, ओस
बून्द की चाहत में
जागते हैं
अदृश्य
कोपल तमाम रात, सर्द रातों में उष्ण हथेलियों का
स्पर्श जीला जाता है सुबह तक, ज़िन्दगी हर
हाल में प्रतीक्षा करती है सूरज की प्रथम
किरण, खिलते हुए गुलाब की
पंखुड़ियों में कहीं रुकी
रहती है उम्मीद की
बून्द, आइने की
धूल हटाते
हुए हम
निहारते हैं अपना बिम्ब, चाहते हैं नई शुरूआत, - -
भूलना चाहते हैं उम्र का अंकगणित, अतीत
का हिसाब किताब, पाने खोने के खेल,
जटिल रिश्तों के भूल भुलैया, हम
जीना चाहते हैं सरल रेखा
की तरह अंतहीन, ये
और बात है कि
हम सफल
हो पाते
भी हैं
या नहीं, फिर भी हम मुस्कुराते हुए क़ुबूल करते हैं
वर्तमान को यथावत, दरअसल हर चीज़ के
लिए विकल्प मिलना आसान नहीं, इसी
एक बिन्दु पर आ कर हम मध्यम पथ
का करते हैं अनुसरण, दिल के
दरख़्त में सजाते हैं नाज़ुक
पत्तियां, देह की
शाखाओं
को कर
जाते
हैं जान बूझकर नज़रअंदाज़ - -
- - शांतनु सान्याल

24 नवंबर, 2024

कुछ पलों की चाहत - -

 कुछ देर काश और ठहरते, कुछ गिरह ए ताल्लुक़ात

ज़रा और भी खुलते, दूर तक बहते बहते कहीं
किसी मोड़ पर दो स्रोत अंदर तक एक दूजे
से मुक्कमल जा मिलते, कुछ देर काश
और ठहरते । प्रकाश स्तम्भ और
लहरों के मध्य एक मौन संधि
ज़रूरी है, कितना
कुछ क्यूं न हो
हासिल
इस
मुख़्तसर ज़िन्दगी में, मुहोब्बत के बग़ैर हर चीज़
अधूरी है, काश कुछ और उम्र की मियाद बढ़
जाए, हम बारहा तुम पर ही मरते, तुम्हारे
इश्क़ में जां से हज़ार बार गुज़रते,
कुछ देर काश और ठहरते ।
साहिल की अदृश्य
इबारतें उभरती
हैं दिगंत के
सप्त
रंगों में, गूँजती हैं प्रतिध्वनियां सुदूर माया मृदंगों
में, ये और बात है कि हम रहें न रहें फिर भी
हमारी दास्तां रहेगी मौसमी उमंगों में,
काश कुछ दूर और ज़िन्दगी के
सफ़र में एक संग निकलते,
चाँदनी रात में कुछ और
निखरते, कुछ और
भी महकते,
कुछ देर काश और ठहरते - - -
- - शांतनु सान्याल







ख़्वाब दर ख़्वाब - -

ख़्वाब दर ख़्वाब ज़िन्दगी तलाशती है

नई मंज़िलों का ठिकाना, वो
तमाम खोल जो वक़्त
के थपेड़ों ने उतारे,
उन्हीं उतरनों
को देख,
चाहता हूँ ख़ुद को यूँ ही भूल जाना,
कुछ पल जो पत्तों के नोक
पर थे ओस बून्द की
तरह अस्थिर,
रात ढले
पिघले
हुए मोम पर बिखरा पड़ा था इश्क़ ए
ख़ज़ाना, न जाने कौन सूंघ गया
सारे शहर को दूर तक है
अंतहीन ख़ामोशी,
किसे आवाज़
दें कौन
भला
समझेगा दिल का नज़राना, हर किसी
को चाहिए जिस्म ओ जां की
दुनिया, निरंतर लेन देन,
मुश्किल है उन्हें रूह
से रुबरु
मिलवाना ।
- - शांतनु सान्याल

23 नवंबर, 2024

विस्मृत दस्तक


रात के तमाम पर्दे क्रमशः उठे और गिर गए,
आकाश समेट गया नीला आलोकित
शामियाना, सुदूर कोहरे में खड़ी
है लाजवंती सुबह, कुछ पल
की नीरवता, पुनः जीवन
का है मैराथन, अलिंद
के देह को छूती
हुई ऊपर
उठ
चली है मोर्निंग ग्लोरी की नाज़ुक बेल, हाथों
में अख़बार लिए उसे निर्मिनेष तकना
है एक सुखद एहसास, जैसे कोई
मासूम बच्चा रैलिंग के मध्य
से देखना चाहे उड़ते
हुए कबूतरों का
समूह, कुछ
भटकी
हुईं
पीली तितलियां, कुछ विस्मृत दस्तकों के शब्द
तलाश करते हैं तुम्हारा बिम्ब, सीने के अथाह
गहराई में, शीर्षक के सिवाय कुछ पढ़ने
की अब ख़्वाहिश नहीं होती ।
* *
- शांतनु सान्याल

22 नवंबर, 2024

रेशमी नज़दीकियां - -

कोहरे में डूबे हुए हैं दूर तक फूलों की घाटियां,
एक हलकी सी सरसराहट अभी तक है 
ज़िन्दा हमारे दरमियाँ, कोई ख़्वाब
या अधूरी जन्म जन्मांतर की
प्यास, देह को लपटे हुए
हैं जैसे ख़्वाहिशों के
अमरबेल, जीवंत
हैं अभी तक
महकी
हुईं
चाँदनी रात में मुहोब्बत की परछाइयां, एक 
हलकी सी सरसराहट अभी तक है ज़िन्दा 
हमारे दरमियाँ । पारदर्शी खिड़कियों
के धरातल पर जमें हुए से हैं
उष्ण साँसों के वाष्प, या
जी उठे हैं गुज़रे हुए
मील के पत्थर,
शीशे के
सीने
पर
फिर तुमने उकेरा है मेरा नाम, सर्द रातों में -
अधर तले, पुनः जाग उठे हों जैसे बिंदु
बिंदु मधुमास, कश्मीरी शाल में गुथे
हुए हैं देह गंध के मीठे एहसास,
जीवित हो चले हैं फिर एक
बार रेशमी नज़दीकियां,
एक हलकी सी 
सरसराहट 
अभी 
तक है ज़िन्दा हमारे दरमियाँ - -
- - शांतनु सान्याल 



30 अक्टूबर, 2024

मृगजल - -

गुमशुदा ठिकाना खोजता है कोई

आदिम सितारा, मृगजल भर
कर नयन ढूंढते हैं,
लुप्तप्राय
किनारा,
जी
उठे हैं सभी ख़्वाहिशें जीवाश्म
के देह से बाहर, सुना है
आज रात आसमान
से बरसेगी
अमृतधारा,
अक्सर
मुड़ के देखा किया, कोई न था
हद ए नज़र, बंद खिड़कियां
दरवाज़े फिर किस ने
नाम है पुकारा,
ख़ुश वहम
ही सही,
जो
ज़िंदगी को खिंचे लिए जाए, दर
ओ दीवार के बीच, यूँ ही
भटकता है दिल
बंजारा, हर
ओर
रौशनी हर सिम्त जश्न ए मसर्रत
का आलम, दो पल ही मिल
जाएं डूबने वाले को
तिनके का
सहारा ।
- - शांतनु सान्याल

30 सितंबर, 2024

अवगाहन - -

अंतिम अध्याय में सूर्य भी खो

देता है रौद्र रूप, समंदर में
काँपता सा रह जाता है
तेजस्वी धूप, दिल 
के शीशे में है
जड़ित
प्रणय का प्रतिफलन, बिंदु -
बिंदु जीवन भर का
एक अमूल्य
संकलन,
डूब
कर भी किसी और जगह
एक नई शुरुआत,
बारम्बार जन्म
के पश्चात
भी नहीं
मिलती
निजात, अजीब सा तिलस्मी
खिंचाव रहा हमारे दरमियान,
सुदूर दिगंत रेखा पे कहीं
मिलते हैं ज़मीं
आसमान ।।
- - शांतनु सान्याल


19 सितंबर, 2024

मिलो तो सही - -

मिलो तो सही इक बार वैसे

मुझ में अब कुछ ख़ास
न रहा, कई भागों
में बंटने के
बाद
शून्य के सिवा कुछ पास न
रहा, दस्तकों की उम्र
ढल चुकी, दरवाज़े
भी हैं निष्क्रिय
से मौन,
घरों
के अंदर बन गए घरौंदे अनेक
कहीं भी आवास न रहा,
राजपथ के सीमांत,
कोने में कहीं
उभरता है
पूनम
का
चांद हर शै अनवरत है गतिमान
ताहम वो सुंदर मधुमास
न रहा, चाँदरात में
शायद आज
भी नहाते
हैं कच्ची
उम्र के
कोपल, शिद्दत से मिलते हैं लोग
लेकिन रिश्तों में वो मिठास
न रहा ।
- - शांतनु सान्याल


18 सितंबर, 2024

उस पार - -

इक हल्की सी लकीर झुकी

पलकों पे खींच गया
कोई, कुम्हलाए
हुए ख़्वाब
को जैसे
रात
ढले सींच गया कोई, अस्थिर
कमल पात पर देर तक
ठहरा हुआ था मेह
बूंद, वक्षस्थल
के सरोवर
को
उजाले से पूर्व उलीच गया
कोई, चिर दहन ले कर
आबाद रहता है
मुहोब्बत का
महानगर,
उस
पार है अदृश्य जग, दरवाज़ा
हौले से मीच गया कोई ।
- - शांतनु सान्याल

03 अगस्त, 2024

दिल का सुकून - -

कहने को हम सभी लोग हैं एक ही 

शहर के बाशिन्दे, ये और बात 

है कि दिल से मिलने की 

कोशिश नहीं होती,

न जाने कितने 

मोड़ से 

मिलता है ये एक अदद रास्ता, नीले 

दरीचे से झाँकते हैं बादल, पर 

बारिश नहीं होती, एक ही 

छत के नीचे यूँ तो 

गुज़र जाती है 

सारी ज़िंदगी,

अंतिम 

पल कुछ देर रुक जाने की गुज़ारिश 

नहीं होती,ज़रा सी बात पर न 

टूटे नाज़ुक दिलों के महीन 

से धागे, रहे लब 

ख़ामोश 

लफ़्ज़ों से इश्क़ ए नुमाइश नहीं होती,

ताउम्र भटका किए, ताहम ख़्वाबों 

का सफ़र है अधूरा, दिल की

गहराइयों में जो अक्स

उतरे बाद उसके

कोई और

ख़्वाहिश

नहीं

होती ।

- - शांतनु सान्याल




20 जुलाई, 2024

उजास - -

दो समानांतर पटरियां सुदूर पहाड़ियों के मध्य

जहां आपस में मिलती नज़र आती हैं, बस

वहीं तक वास्तविकता रहती है जीवित,

मध्यांतर में जो बिखरी हुई है चाँदनी

ले जाती है ज़िन्दगी को मिलन 

बिंदु की स्वप्निल कंदराओं

में, मध्य रात में होती हैं

जहां दिव्य शक्तियां

अवतरित, बस

वहीं तक वास्तविकता रहती है जीवित । एक

अदृश्य परिपूरक समीकरण बांधे रखता

है हमें अंतिम प्रहर की उजास तक,

देह से उतर जाते हैं सभी मान

अभिमान के खोल, जीवन

तब देख पाता है मुक्ति

पथ का पूर्वाभास,

निर्मोह हृदय

करना

चाहता है संचित अभिलाष को दोनों हाथों

से वितरित, बस वहीं तक वास्तविकता 

रहती है जीवित ।

- - शांतनु सान्याल

19 जुलाई, 2024

निःसीम गहराई - -

खुले बदन बारिश में, फिर भीगने की चाहत जागे,

नदी पहाड़ का खेल है ज़िन्दगी, उम्र के पीछे भागे,


गहन प्रणय तुम्हारा बना जाता है मुझे अश्वत्थ वृक्ष,

देह प्राण में बंध चले हैं अदृश्य मोह के रेशमी धागे,


अनगिनत सिंधु के पार है वो युगान्तर से प्रतिक्षारत,

छाया की तरह चलता है जो कभी पीछे कभी आगे,


ख़ुद को उजाड़ कर चाहा फिर भी थाह रहा अज्ञात,

निःसीम गहराई, उम्र से कहीं अधिक मुहोब्बत मांगे,

- - शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past