17 सितंबर, 2025

माटी का संग्रहालय - -

कोई भी इस जगत में शत प्रतिशत

अनवद्य नहीं, मृत्पिंडों से
निर्मित है देह का
संग्रहालय,
कुछ न
कुछ
कमी रह जाती है शिल्प की रचना में,
अंतरतम का सौंदर्य ही रहता है
शाश्वत, सुंदरता उभरती है
तभी जब हृदय बने
उन्मुक्त देवालय,
मृत्पिंडों से
निर्मित है
देह का
संग्रहालय । अश्वत्थ वृक्ष बने जीवन,
सत्पथ में बढ़े भावनाओं की हरित
शाखाएं, ऊपर में हो पक्षियों
का रैन बसेरा, परछाई
में बसे क्लांत
पथिकों
का
डेरा, सब कुछ अपने अंदर समाहित
क्या श्मशान क्या शिवालय,
मृत्पिंडों से निर्मित है
देह का
संग्रहालय ।
- - शांतनु सान्याल


14 सितंबर, 2025

जल शब्द - -

अनुबंध था जल शब्द की तरह अथाह

गहराई में विलीन हो जाना, सजल
अंधकार को देह में लपेटे गहन
प्रणय के लिए अंध मीन हो
जाना, चाहतों के तरंग
थे कल्पना के परे,
संग रहने की
अवधि
रही
सीमित, सोचने समझने में ही समय गुज़र
गया, मुश्किल था किसी एक पर सब
कुछ त्याग कर तल्लीन हो जाना,
अनुबंध था जल शब्द की
तरह अथाह गहराई
में विलीन हो
जाना ।
उम्र
अपना असर छोड़ती है हर एक क़दम पर,
जीर्ण पत्तों का एक दिन धरा के अंक
में बिखरना है निश्चित, मौसमी
हवाओं के साथ ज़िन्दगी
खेलती है आँख -
मिचौली, जो
दरख़्त
आज
है फूलों से गुलज़ार, उसे भी एक दिन है
श्रृंगार विहीन हो जाना, अनुबंध था
जल शब्द की तरह अथाह
गहराई में विलीन
हो जाना ।
- - शांतनु सान्याल






13 सितंबर, 2025

डूबने से पहले - -

रात गहराते ही चाँद उतरता है सहमे सहमे

नदी के स्थिर वक्षःस्थल में, जी उठते
हैं उन पलों में तमाम मृतप्रायः
भावनाएं, निशाचर विहग
की मायावी आवाज़
में गूँजती है सृष्टि,
अहम् कः
अस्मि ?
मम 
गन्तव्यं कुत्रास्ति ? हम ख़ुद को पाते हैं एक
अंतहीन मरुस्थल में, रात गहराते ही
चाँद उतरता है सहमे सहमे नदी
के स्थिर वक्षःस्थल में ।
स्वप्निल वृक्षों में
झूलते से
नज़र
आते हैं दीर्घ समय तक जीने की अभिलाषा,
कुछ रेशमी धागों से बंधे हुए मनौती के
मायावी गांठ, अपरिसीम चाहतों
के रंगीन बुलबुले, हम भरना
चाहते हैं अपनी बांहों में
सारा आसमान, भूल
जाते हैं क्षणिक
आवेश में
अपना
अस्तित्व, हम से छूट जाता है शाश्वत प्रेम
बस भटकते रह जाते हैं देह के अंदर
महल में, रात गहराते ही चाँद
उतरता है सहमे सहमे
नदी के स्थिर
वक्षःस्थल
में ।
- - शांतनु सान्याल 

11 सितंबर, 2025

तयशुदा सौगात - -

जहां ख़तम हो जाए बातों का ज़ख़ीरा, वहीं

से होता है शुरू ख़ुद से गुफ़्तगू का
सिलसिला, ज़िन्दगी के
मुख़्तलिफ़ मोड़
पर मिलते
रहे न
जाने कितने चेहरे कुछ उजागर, कुछ धुंध
में छुपे हुए, अँधेरे उजाले का अंतहीन
खेल चलता रहता है यथावत,
किसे ख़बर कहाँ पर है
मौजूद पुरसुकून
का मरहला,
वहीं से
होता है शुरू ख़ुद से गुफ़्तगू का सिलसिला ।
अहाते की धूप रहती है मुख़्तसर वक़्त
के लिए, कुछ गुलाब की तक़दीर
में रहता है खुल कर मुस्काने
की वसीयत, कुछ झर
जाते हैं बिन खिले
ही शाम ढलने
से पहले,
अपने
अपने हिस्से का तयशुदा पुरस्कार मिला,
वहीं से होता है शुरू ख़ुद से
गुफ़्तगू का सिलसिला ।
- - शांतनु सान्याल

अनुबोध - -

आधी रात, उतार फेंकी है तमाम मुखौटे,

आईना में उभर चले हैं गहरे ज़ख्मों
के निशान, अनुबोध का अनुक्रम
है जारी अक्स ओ चेहरे के
दरमियान । सिलवटों
को संवारते हुए
देह करता
है नींद
का
आवाहन, खुली आँखों के ऊपर उड़ते
हैं रंगीन तितलियां, अपनी बाहों
में समेटने को है आतुर मेघ -
विहीन आसमान,
अनुबोध का
अनुक्रम
है जारी 
अक्स ओ चेहरे के दरमियान ।
हम देखते रहते हैं अंकीय समय
जाने कितनी बार, पहलू
बदलता रहता है
अपनी जगह
कोहरे में
डूबा
हुआ निविड़ अंधकार, अभी बहुत दूर
है दिगंत अधर, खिली चाँदनी में
अतृप्त प्राणों को कर लेने दो
मुक्तिस्नान, अनुबोध 
का अनुक्रम है
जारी अक्स 
ओ चेहरे 
के
दरमियान ।
- - शांतनु सान्याल


09 सितंबर, 2025

देहांतरण - -

अदृष्ट प्रदीप, मातृ सम प्रज्वलित तब

अंतःकरण, सभी दिशाएं जब हों
अंधकारमय, मकड़ जाल में
समय चक्र, जीवन
प्रवाह तब मांगे
भवसिंधु का
गहन शरण,
अदृष्ट
प्रदीप, मातृ सम तब प्रज्वलित अंतः
करण । पाषाण प्रतिमा बन जाए
ईश जब हम भिक्षु सम फैलाएं
हाथ, मंदिर के बाहर पांव
रखते ही बढ़े अनेकों
हाथ तब तुम हो
ईश्वर का ही
एक अन्य
रूप,
ये और बात है कि हम में कितना अंश
है ईश्वरीय अवतरण, अदृष्ट प्रदीप,
मातृ सम प्रज्वलित तब
अंतःकरण ।
- - शांतनु सान्याल


06 सितंबर, 2025

ग़ज़ल - -

उम्रदराज़ किताब की अब कोई ज़मानत नहीं,

सफ़ा टूट कर फिर जुड़ जाएं ऐसी हालत नहीं,

जाने क्यूं वो आज भी तकता है बड़ी चाहत से,
कैसे बताऊं कि मेरे पास उसकी अमानत नहीं,

ज़िन्दगी निचोड़ लेती है अपने ढंग से सब कुछ,  उजड़े हुए शहर में, आने की अब इजाज़त नहीं,

चौक में मजमा सा लगा है मुखौटे की दुकां पर,
जिसे दिल में उतार लें वो ख़ास शख़्सियत नहीं,

शाह राह के दोनों बाजू सज चले हैं मीनाबाज़ार,
फिर कभी मिलेंगे बियाबां में आज तबियत नहीं,

तमाम उम्र गुज़रे हैं, इन्हीं सुलगते तंग गलियों से,
ख़्वाब की वादियों में जाएं अब ऐसी हसरत नहीं,
- - शांतनु सान्याल





05 सितंबर, 2025

शाश्वत मशाल - -

इतिकथाओं के पृष्ठों से उतरता है समय

देह में उकेरे हुए ज़ंजीरों के निशान,
पुकारते हैं अदृश्य महामानव
आग्नेय शब्दों में विस्मृत
स्वाधीनता के गान,
भग्न देवालयों
के गर्भ -
गृहों
में आज भी प्रज्वलित हैं शाश्वत मशाल,
सम्प्रति युग में भी हैं सक्रिय वही बर्बर
कौरवों के सन्तान, इतिकथाओं
के पृष्ठों से उतरता है समय
देह में उकेरे हुए ज़ंजीरों
के निशान । आओ
कि पुनः हम
संस्कृति
को
बचाने का लें संकल्प, सभी विषमताओं
को भूल कर रचें एक अद्वितीय वास -
स्थान, जहां हर एक व्यक्ति को
मिले न्यायोचित सन्मान,
देश बने पथ प्रदर्शक
विश्वगुरु महान,
पुकारते हैं
अदृश्य
महामानव आग्नेय शब्दों में विस्मृत
स्वाधीनता के गान ।।
- - शांतनु सान्याल

04 सितंबर, 2025

उस मोड़ पर कहीं - -

नदी जिस हँसली मोड़ पर छोड़ जाती है

रेत का ढलान, उसी बंजर जगह पर
बिखरे पड़े रहते हैं निःसंगता के
शून्य स्थान, सुख दुःख के
प्रश्नोत्तरी में ज़िन्दगी
ढूंढती है संधि
काल, हर
एक
प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाता दर्पण का
वेताल, समय स्रोत सदैव रहता
है चलायमान, बंजर जगह
पर बिखरे पड़े रहते हैं
निःसंगता के शून्य
स्थान । सात
जनमों का
संग नहीं
सहज
इसी
जगह पर एक दिन एकाकी है सुलगना,
इसी स्थान पर रह जाएंगे कुछ एक
पदचिन्हों के अभिलेख, कुछ
मिट जाएंगे सदा के लिए,
चलता रहेगा क्रमशः
डूबना और
उभरना,
कुछ
आवाज़ प्रतिध्वनित हो लौट आएंगे कुछ
हो जाएंगे शब्दहीन बियाबान, बंजर
जगह पर बिखरे पड़े रहते हैं
निःसंगता के शून्य
स्थान ।
- - शांतनु सान्याल

02 सितंबर, 2025

असलियत - -

अक्सर हम भूल जाते हैं ख़ुद की अहमियत,

किसी और की नज़रों में ढूंढते हैं अक्स
अपना, मुमकिन नहीं हर किसी को
ख़ुश करना, हर शै ज़रूरी नहीं
बन जाए घरेलू, कई बार
फ़ीकी पड़ जाती
है मुद्दतों की
तरबियत,
अक्सर
हम भूल जाते हैं ख़ुद की अहमियत । हज़ार
परतों में ढके रहते हैं ख़्वाहिशों के बीज,
बस कुछेक को नसीब होती है उगते
सूरज की झलक, कुछ उभर कर
जी जाते हैं लंबी उमर, कुछ
दम तोड़ जाते ज़मीं के
अंदर, ज़िन्दगी का
फ़लसफ़ा चाहे
जो भी हो,
हर हाल
में हमें
तै करना होता है ज़िन्दगी का सफ़र, जीना
चाहते हैं हर एक पल, चाहे कुछ भी
हो मौत की असलियत, अक्सर
हम भूल जाते हैं ख़ुद
की अहमियत ।
- - शांतनु सान्याल 

31 अगस्त, 2025

विलुप्त पल - -

उन्हें ज्ञात है अब मुमकिन नहीं मेरी वापसी,

फिर भी वो बुलाते हैं निरंतर, जब मेघ
घिर आए ईशान कोण में, ऊंची
ऊंची बिल्डिंगों के दरमियान
जब बिजली कौंधती
है आधी रात, एक
झनझनाहट के
साथ जब
हिलती
है बालकनी, वो बुलाते हैं मुझे सुदूर वनांचल
में, जहां कभी मैं दौड़े जाया करता था
खुले बदन, सभी दुःख दर्द से मुक्त
हो कर बारिश में भीगने के
लिए, काश, वो जान
पाते वेदनामय
अंतर, उन्हें
ज्ञात है
अब मुमकिन नहीं मेरी वापसी, फिर भी वो
बुलाते हैं निरंतर । वो अनाम अरण्य
नदी आज भी आवाज़ देती है
उसी अल्हड़पन से, रह रह
कर उकसाती है खोए
हुए बचपन की
मासूमियत,
वो कच्चे
रास्तों
से बहते हुए मटमैले धारे, जहां आज भी
बह रहे हैं काग़ज़ के नाव, कुछ गुज़रे
हुए पल आज भी तलाशते हैं उसी
जगह राहत भरी छाँव, बहुत
कुछ पाने की चाह में
छूट जाता है वो
छोटा सा
गाँव,
सतह पर उभरते हैं इन्द्रधनु के बिम्ब, एक
महाशून्य रहता है हिय के अभ्यंतर,
उन्हें ज्ञात है अब मुमकिन नहीं
मेरी वापसी, फिर भी वो
बुलाते हैं निरंतर ।
- - शांतनु सान्याल 



30 अगस्त, 2025

आधे अधूरे - -

बेतहाशा भटकता रहा परिपूर्णता

की तलाश में, मुद्दतों वो
रहता रहा मेरे ही
घर के बहोत
पास में,
कुछ
ख़्वाब पड़े रहते हैं फुटपाथ में
सिगरेट बट की तरह,
अर्धनिशा जागती
है न जाने
किस
मिथ्या विश्वास में, आधे अधूरे
का अंकगणित ज़िन्दगी
भर चलता ही रहा,
कभी इस
करवट
कभी
उस,अक्सर रात गुज़रती है अर्ध
निःश्वास में, सिलवटों की
तरह ख़ुद को संवारने
के सिवा हासिल
कुछ भी
नहीं,
उम्र गुज़रती है आधी किताब की
तरह फिर कभी पढ़ने की
आस में, इस अधूरेपन
में कहीं हम ढूंढते
हैं जीने की
वजह,
कुछ
मौन मुस्कुराहटें, कुछ अर्धक
सवांद, बहोत ज़रूरी हैं
जीवन प्रवास में,
बेतहाशा
भटकता रहा परिपूर्णता की तलाश
में, मुद्दतों वो रहता रहा मेरे ही
घर के बहोत
पास में ।
- - शांतनु सान्याल 

29 अगस्त, 2025

शर्तहीन - -

ज़िन्दगी में हर चीज़ शर्तहीन नहीं होते,

बहुत कुछ पाने के लिए बहुत कुछ
ऑंख बंद करके निगलना है
ज़रुरी, सच्चाई के घूँट
वैसे भी महीन नहीं
होते, ज़िन्दगी
में हर चीज़
शर्तहीन
नहीं
होते । आइना पूछता है मुस्कुराहटों के
पीछे का रहस्य, निगाहों में है रुके
हुए तूफ़ान की ख़ामोशी, रात
ढले हर एक ख़्वाब रंगीन
नहीं होते, ज़िन्दगी में
हर चीज़ शर्तहीन
नहीं होते । वो
मुझ में था
शामिल
इस
तरह कि ख़ुद का वजूद भी याद नहीं,
जब मैंने चाहा उसमें समा जाना
गहराइयों तक, उत्तर मिला
हर कोई हर किसी के
अधीन नहीं होते,
ज़िन्दगी में
हर चीज़
शर्तहीन नहीं होते । कुछ चेहरों का
तिलिस्म खींचे लिए जाता है
दूर तक, मुग्धता हमें घेरे
रहती है आठों पहर,
हम भूल जाते हैं
कि हर एक
सरोवर
अंदर
से गहीन नहीं होते, ज़िन्दगी में हर
चीज़ शर्तहीन
नहीं होते ।
- - शांतनु सान्याल

28 अगस्त, 2025

उसी जगह - -

कोई किसी का इंतज़ार नहीं करता फिर

भी लौटना पड़ता है उसी ठिकाने,
ज़माना कितना ही क्यूं न
बदल जाए ज़ेहन से
नहीं उतरते हैं
वही गीत
पुराने,
हर
चीज़ की है मुकर्रर ख़त्म होने की तारीख़,
मैंने तो अदा की है ज़िन्दगी को इक
अदद महसूल, तक़दीर में क्या
है ख़ुदा जाने, उम्र भर का
हिसाब मांगते हैं मेरे
चाहने वाले, तर्क
ए ताल्लुक़
के हैं
हज़ार बहाने, मुझे मालूम है बुज़ुर्गख़ाने
का पता, अपने ही घर में जब कोई
शख़्स हो जाए बेगाना, बाक़ी
चेहरे तब हो जाते हैं अपने
आप ही अनजाने, कोई
किसी का इंतज़ार
नहीं करता
फिर
भी लौटना पड़ता है उसी ठिकाने - - -
- - शांतनु सान्याल

23 अगस्त, 2025

मीठा एहसास - -

उतरती है धूप बालकनी को छू कर,

परछाइयों में रह जाते हैं कुछ
मीठे एहसास, दूर पहाड़ों
के ओट में सूरज डूब
चला, फिर एक
दिन डायरी
से गिर
चुका,
निकलने के बाद हल्का सा दर्द छोड़
जाता है उंगलियों में नन्हा सा
फाँस, परछाइयों में रह
जाते हैं कुछ मीठे
एहसास । नदी
का प्रवाह
सतत
खेलता है ध्वंस और निर्माण के मध्य,
इस पार हाहाकार उस पार जलोढ़
माटी का भंडार, बंजर से हो कर
खेत खलिहान, कभी उमस
भरे दिन कभी अनवरत
बरसता आसमान,
गंतव्य यथावत
कुहासामय
फिर भी
अज्ञात को पाने का अंतहीन प्रयास,
परछाइयों में रह जाते हैं कुछ
मीठे एहसास ।
- - शांतनु सान्याल

18 अगस्त, 2025

अनाश्रित - -

पुरातन अंध कुआँ सभी आवाज़ को अपने

अंदर कर जाता है समाहित, वो शब्द
जो जीवन को हर्षोल्लास दें बस
वही होते हैं प्रतिध्वनित,
दुःखद अध्याय रह
जाते हैं शैवाल
बन कर,
उभर
आते हैं उस के देह से जलज वनस्पति, वट
पीपल के असंख्य प्रशाखा, लोग भूल
जाते हैं क्रमशः उसका अस्तित्व,
वो ममत्व जो कभी करता
रहा अभिमंत्रित, पुरातन
अंध कुआँ सभी
आवाज़ को
अपने
अंदर कर जाता है समाहित । कालांतर में
कहीं कुछ शब्द बिखरे मिल जाएंगे
खण्डहरों के पत्थरों में, अज्ञात
लिपियों में लिखे रह जाते
हैं मनोव्यथाएं जिन्हें
कभी कोई पढ़
ही नहीं
पाता,
दबे रह जाती हैं जीर्ण पत्तों के नीचे अनगिनत
अप्रकाशित कविताएं, कुछ भावनाएं
होती हैं चिर अनाश्रित, पुरातन
अंध कुआँ सभी आवाज़
को अपने अंदर कर
जाता है
समाहित ।
- - शांतनु सान्याल





17 अगस्त, 2025

अन्तराग्नि - -

हर कोई सोचे अपने वृत्त में घुड़सवार, वक़्त

के हाथों घूमे काठ का हिंडोला, उम्र भर
का संचय जब निकले दीर्घ श्वास,
शून्य के सिवाय कुछ नहीं
होता अपने पास, तब
मुस्कुराता नज़र
आए अरगनी
से लटका
हुआ
ज़िन्दगी का फटेहाल झोला, वक़्त के हाथों
घूमे काठ का हिंडोला । घर से उड़ान
पुल हो कर वही हाट बाज़ार,
दैनिक शहर परिक्रमा,
पीठ सीधी करने
की अनवरत
कोशिश,
वही
टूट के हर बार बिखरने का सदमा, हज़ार
इतिकथाओं का मृत संदेश, वही
सीलनभरी दुनिया सरीसृपों
की तरह रेंगते परिवेश,
ऊपर से विहंगम
दृश्य नज़र
आए
मनोरम, वक्षस्थल के नीचे जले अनबुझ
ज्वाला, वक़्त के हाथों घूमे काठ
का हिंडोला ।
- - शांतनु सान्याल

16 अगस्त, 2025

उम्मीद की लकीरें - -

ख़्वाबों को मुसलसल सीने से लगाए रखिए,

सुबह होने तलक इस रात को जगाए रखिए,

उम्मीद की लकीरों में है छुपा जीवन सारांश,
दिल में यूँ तसव्वुर ए फ़िरदौस बनाए रखिए,

इस बज़्म की दिल फ़रेब हैं रस्म ओ रिवाज,
दहलीज़ पे इक शाम ए चिराग़ जलाए रखिए,

उम्रभर की वाबस्तगी थी लेकिन दोस्ती न हुई,
हाथ मिलाने का सिलसिला यूंही बनाए रखिए,

मुख़्तसर है इस जहां में दौर ए मेहमांनवाज़िश,
नक़ली गुलों से आशियां अपना सजाए रखिए,

कोई नहीं होता सफ़र ए ज़िन्दगी का हमसफ़र,
अकेले चलने का हौसला हमेशा बनाए रखिए,
- - शांतनु सान्याल

14 अगस्त, 2025

तूफ़ान के बाद - -

आसान नहीं तूफ़ान का पूर्वाभास,

पतंग और उंगलियों के मध्य
का सेतु ज़रूरी नहीं
हमेशा के लिए
बना रहे
निष्ठावान, मौसमी हवाओं का क्या,
उजाड़ने से पहले संभलने का
नहीं देता ज़रा भी अवकाश,
आसान नहीं तूफ़ान
का पूर्वाभास ।
नदी की
ख़ामोशी, लौह पुल से गुज़रती हुई
दूरगामी रेल, दोनों के मध्य
का समझौता ही हमें
बांधे रखता है
निःशर्त,
हम
बहना चाहते उन क्षणों में सुदूर उस
बिंदु में, जहाँ सागर और नदी
होते हैं आलिंगनबद्ध, एक
विस्मित ठहराव के
बाद देह को
मिलता
है एक
नया रूपांतरण, आवरण विहीन अंग
को तब रंग जाता है अपने रंग
में नीलाकाश, आसान
नहीं तूफ़ान का
पूर्वाभास ।
- - शांतनु सान्याल 

अंदरुनी दुनिया - -

कुछ अधूरे ख़्वाब निःशब्द आ कर

छोड़ जाते हैं मूक चीत्कार,
करवटों में ज़िन्दगी
ढूंढती है बिखरे
हुए अश्रुमय
मोती,
दूरस्थ समुद्र की लहरों में कहीं गुम है
हरित द्वीप का प्रकाश स्तम्भ, फिर
भी नहीं बुझती अंतरतम की
नील ज्योति, आहत
पंखों से जाना
है दिगंत
पार,
कुछ अधूरे ख़्वाब निःशब्द आ कर
छोड़ जाते हैं मूक चीत्कार ।
कुछ लम्हें हमारे मध्य
हैं ठहरे हुए जल -
प्रपात, भिगो
जाएंगे
एक
दिन अकस्मात, अभी आसमान है
मेघमय, इंद्रधनुष पुनः उभरेगा
रुक जाए ज़रा विक्षिप्त
बरसात, कौन भला
है अंदर तक
इस जहां
में मुतमइन, हर कोई ऊपर से दिखाता
है कुछ और, भीतर से है मगर
बेक़रार, कुछ अधूरे ख़्वाब
निःशब्द आ कर  छोड़
जाते हैं मूक
चीत्कार ।
- - शांतनु सान्याल

13 अगस्त, 2025

आसन्नकाल - -

जन्म सूत्र से गंतव्य का ठिकाना

नहीं मिलता, गर्भाग्नि विहीन
पाषाण, कभी नहीं
पिघलता ।

लोग लहूलुहान भटकते रहे
शरणार्थी बन कर, ग़र
ज्ञात होता बिन
काँटे काँटा
नहीं
निकलता ।

सद्भावना के जूलूस में
हथियारबंद निकले
वो, अगर हम
एक बने
रहते
तो देश नहीं सुलगता ।

न जाने कितने वर्ण भेदों ने हमें
निरंतर बिखेरा, आज को
बदले बिन आसन्नकाल
नहीं सुधरता ।
- - शांतनु सान्याल










12 अगस्त, 2025

बिम्ब के उस पार - -

अबूझ मन खोजता है जाने किसे प्रतिबिम्ब के उस पार, गिरते संभलते रात को खोलना

है सुबह का सिंह द्वार, परछाइयों
का नृत्य चलता रहता है उम्र
भर, दरख़्तों से चाँदनी
उतरती है लिए संग
अपने हरसिंगार,
किस ने देखा
है जन्म
जन्मांतर की दुनिया, अभी इसी पल जी लें
शताब्दियों की ज़िन्दगी, कल का कौन
करे इंतज़ार, समेट लो सभी चौरंगी
बिसात, ताश के घरों को है एक
दिन बिखरना अपने आप,
नीली छतरी के सिवा
कुछ नहीं बाक़ी,
जब टूट जाए
साँसों की
दीवार,
गिरते संभलते रात को खोलना है सुबह
का सिंह द्वार ।
- - शांतनु सान्याल

10 अगस्त, 2025

कुहासे का सफ़र - -

छाया निहित माया, स्वप्न के अंदर स्वप्न का

उद्गम, ठूँठ के जड़ से उभरे जीवन वृक्ष,
ढूंढे आकाश पथ में आलोक उत्स,
वक़्त का हिंडोला घूमे निरंतर,
दर्पण के भीतर हज़ार
दर्पण, कौन प्रकृत
कौन भरम,
स्वप्न के
अंदर स्वप्न का उद्गम । घर के अंदर अनेक
घर, हृदय तलाशे नाहक़ नया शहर,
अमर लता सम प्रणय पाश
देह बने मृत काठ, प्राण
खोजे अनवरत पुनर
जीवन का मधु
मास, एक
मोड़
पर जा रुके सितारों का जुलूस, अन्य मोड़
से निकले सुबह की धूप सहम सहम,
स्वप्न के अंदर स्वप्न
का उद्गम ।
- - शांतनु सान्याल

07 अगस्त, 2025

क्या से क्या बना दिया - -

भीगने की जुस्तजू ने इंतज़ार ए शब बढ़ा दिया,

बरसात की चाह ने हमें क्या से क्या बना दिया,

कभी हम से थी आबाद मुहोब्बत की बस्तियां,
वीरानगी है हर सिम्त जब से उसने भुला दिया,

कब गुज़रा सितारों का कारवां कुछ याद नहीं,
आधीरात से पहले भीगे जज़्बात ने सुला दिया,

संग कोयला से ही उभरता है ताब ए कोहिनूर,
सही वक़्त दर्पण ने अपने अक्स से मिला दिया,

बहोत फ़ख़्र था उसे अपनी ऊंची हवेलियों का,
ज़लज़ला ए वक़्त ने गिरने का दिन गिना दिया,

बरसात की चाह ने हमें क्या से क्या बना दिया ।
- - शांतनु सान्याल

06 अगस्त, 2025

अदृश्य हरकारा - -

शैल हो या अस्थि हर एक चीज़ का क्षरण है

निश्चित, किनारा जानता है नदी का रौद्र
स्वभाव, लहरों का आतंक फिर भी
वो बेफ़िक्र सा बना रहता है उसे
ज्ञात है कुछ पाने के लिए
कुछ खोना है लाज़िम,
सजल अनुभूति
हमें बहुधा
बना
जाती है मूक बधिर व अंध, वक्षःस्थल की
व्यथा नहीं लगती तब अप्रत्याशित,
शैल हो या अस्थि हर एक चीज़
का क्षरण है निश्चित । ये जान
कर भी हम दौड़े जाते
हैं कि क्षितिज
रेखा का
कोई
अस्तित्व नहीं, आँख लगते ही जगा जाता
है अदृश्य हरकारा, मोह के बीज पुनः
लालायित हो चले हैं अंकुरित
होने के लिए, हम छूना
चाहते हैं उस क्षण
आसमान सारा,
इसी एक
बिंदु
पर आ कर पुनः जी उठते हैं हम किंचित,
शैल हो या अस्थि हर एक चीज़ का
क्षरण है निश्चित ।
- - शांतनु सान्याल 

05 अगस्त, 2025

उस पार की दुनिया - -

जातिस्मर की तरह खोजता हूँ वो अलौकिक

द्वार, जहाँ विगत जीवन का था कभी
प्रसारित कारोबार, वो तमाम
पाप - पुण्य का हिसाब,
सत्य - मिथ्या का
पुनरावलोकन,
जानना
चाहता हूँ मृत्यु पूर्व के रहस्य, एक अंतहीन
यात्रा पूर्व जन्म के उस पार, जातिस्मर
की तरह खोजता हूँ वो अलौकिक
द्वार । भाग्यांश में कहीं आज
भी पीछा करते हैं पिछले
जनम के अभिशाप,
या हम जीते हैं
सीने में
लिए हुए अर्थहीन संताप, भटकते हैं आदि
मानव की तरह गुह कन्दराओं में
बेवजह, स्वनिर्मित अंधकार
में तलाशते हैं अंतरतम
की अखंड ज्योति,
दरअसल एक
असमाप्त
मायावी
स्वप्न
ख़ुद से बाहर हमें निकलने नहीं देता, लौट
आते हैं उसी जगह जातिस्मर की
तरह बारम्बार, जातिस्मर की
तरह खोजता हूँ
वो अलौकिक
द्वार ।
- - शांतनु सान्याल


04 अगस्त, 2025

महाशून्य से हो कर - -

मिट्टी के गुल्लक में बंद थे ख़्वाबों के मोहर,

टूटते ही बिखर गए मुद्दतों के भीगे धरोहर,

इंद्रधनु सा उभरे कभी जलप्रपात के ऊपर,
कांच की बूंदे रुकती नहीं हथेली में पलभर,

नेह के बादल उड़ चले हैं तितलियों के संग,
सुदूर द्वीप में सज चले हैं जुगनुओं के शहर,

रेशमी छुअन गुज़रती है देह प्राण से हो कर,
जी उठते हैं सुप्त कोश रात्रि के अंतिम पहर,

शिराओं से हो कर बहती है प्रणय गंध धारा,
मद्धम सुर में अंतर्ध्वनि गाएं गीत ठहर ठहर,

महाशून्य में बहते जाएं आलोक स्रोत के संग,
छोड़ जाएं सभी बंध अपनी जगह उसी डगर, ।
- - शांतनु सान्याल 

02 अगस्त, 2025

उतार की ओर - -

धुआं सा उठे है वादियों में बारिश थमने के बाद,

राहत ए जां मिले इश्क़ ए ख़ुमार उतरने के बाद,

मिलने को आए लोग जब याददाश्त जाती रही, फ़िज़ूल हैं दुआएं उम्र की दोपहर ढलने के बाद,

ख़्वाबों की रंगीन फिरकी हाथों में वो थमा गए,
आँखों में है नशा बारहा गिर के संभलने के बाद,

वो रहज़न था या कोई पैकर ए जादूगर पोशीदा,
होश में लौटे; दूर तक साथ उसके चलने के बाद,

बहुत मुश्किल है; गहराइयों का सही थाह करना, वक़्त नहीं लौटता रुख़ से कलई निकलने के बाद,
- - शांतनु सान्याल

31 जुलाई, 2025

अंध परिधि - -

उस मोड़ पे कहीं था मन्नतों वाला दरख़्त,

जिसकी डालियों से लटके रहते थे
मुरादों के रेशमी डोर, राहगीर
जिसकी परछाई में पाते
थे पल भर का सुकून,
एक स्रोत जहाँ
हर चेहरा
निखर
जाए, न वो कुआं ही रहा, न वो प्रतिबिंब,
न वो चौबारा जहाँ से कभी उठती
थी सांझे चूल्हों की महक, न
जाने कितने हिस्सों में
बँट चुका समुदाय
हमारा, चेहरे
से चमक
ही नहीं,
बहुत
कुछ छीन लेता है हर पल बदलता हुआ
वक़्त, उस मोड़ पे कहीं था मन्नतों
वाला दरख़्त । वही वयोवृद्ध
वट वृक्ष, वही नदी का
किनारा, उजान की
ओर लौटतीं
नौकाएं,
सांध्य
प्रदीप के साथ गूंजता पक्षियों का कलरव,
शंख बेला में लौटते हुए गोवंश, सब
कुछ आज भी हैं विद्यमान, बस
अनुभूति कहीं खो सी गई
है, रिश्तों के दरमियान
अब वो गर्मजोशी
न रही, लोग
हज़ार
हिस्सों में बँट चले, अपने अपने दायरे में
सिमटे हुए, अपनी दुनिया में हैं सिर्फ़
आसक्त, उस मोड़ पे कहीं था
मन्नतों वाला दरख़्त ।
- - शांतनु सान्याल

28 जुलाई, 2025

उन्मुक्त सीप - -

सत्तर साल से उठाता रहा सूखे पत्तों का ढेर,

कहीं कोई सुख जीवाश्म मिल जाए देर सबेर,

अंतिम चाह का क्या कीजै निब टूटने के बाद,
तक़दीर के आगे नहीं चलता कोई भी हेर फेर,

एक अदद हमदर्द की तलाश करते रहे ताउम्र,
एक से छूटे कहीं तो हज़ार वेदनाएं लेते हैं घेर,

बिहान की आस में सीते रहे उम्मीद की चादर,
अपना ढहता ओसारा उगता सूरज ऊंचे मुँडेर,

अपने साध में लगे हैं सभी क्या साधु या स्वांग,
मूक अभिनय के हैं सभी पात्र अपने या हों ग़ैर,
- - शांतनु सान्याल 

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past