30 अप्रैल, 2025

लहू का रंग एक है - -

क्या तुम्हारे ज़ख्म है इन्सानी और हमारे

घाव हैं ज़ख्म ए काफ़िर, ये न भूलो
कि हर ज़ुल्म की सज़ा है
मुकर्रर, इसी ज़मीन
पे, इसी दौर में,
तुम छुप न
पाओगे
हर हाल में तुम्हें होना है रूबरू हाज़िर,
क्या तुम्हारे ज़ख्म है इन्सानी और
हमारे घाव हैं ज़ख्म ए
काफ़िर । वो ख़ुदा
हो नहीं सकता
जो इंसानों
में धर्म
खोजे,
वो
धर्म हो नही सकता जो धर्म के नाम पर
क़त्लेआम करवाए, वही मज़हब है
सब से ऊँचा जो हर एक इंसान
को सिर्फ़ इंसान सोचे, जो
सच्चा है वही होता है
जग जाहिर, क्या
तुम्हारे ज़ख्म
है इन्सानी
और
हमारे घाव हैं ज़ख्म ए काफ़िर ।
- - शांतनु सान्याल

29 अप्रैल, 2025

आग्नेय आह्वान - -

सीमांत के उस पार है बच्चे का पिता

इस पार आंसू बहाती माँ, दर्द
तेरा - मेरा काश धर्म नहीं
पूछता, तुम्हारा ख़ुदा
है महान तो मेरा
भी सृष्टिकर्ता
है शक्तिमान,
ख़ून की
होली
खेलने की चाहत में कहीं तेरा अस्तित्व
न बन जाए मशान, जो नफ़रत की
बुनियाद पर करना चाहे सारे
ब्रह्माण्ड में राज, उसका
भी एक दिन होता
है आवारा
श्वान
रूपी अवसान, अंतर्निहित शत्रु का पता
करना होता है कठिन, दीमक की
तरह जो कर जाते हैं मानचित्र
को खोखला, बाहर के
दुश्मन को फ़तह
करना है बहुत
आसान,
अब
उठो भी गहरी नींद से जाग कि माँ भारती
का रक्तरंजित देह तुम्हें दर्द से है
पुकारता, देश के ख़ातिर
देना है अपने प्राणों
का बलिदान ।
- - शांतनु सान्याल

19 अप्रैल, 2025

प्रश्न चिन्हित अस्तित्व - -

रक्तिम सीमांत में जलते हुए मठ मंदिर,

निरीह लोगों का पलायन, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष,
अश्रुझरित आंखें पूछती हैं
उनका आख़िर दोष
क्या है, कहाँ चले
गए मुहोब्बत
के दुकान
वाले,
किस पर यक़ीन करे जब पड़ौसी ही लूट
ले घर अपना, अपने ही देश में हो
जाएं शरणार्थी, गांव जल रहे
हैं शहर हैं धुआं धुआं,
मानवता का दम
भरने वाले
छुपे बैठे
हैं जाने
कहाँ,
क्या यही है मेरा देश तुम्हारा देश, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष ।
जिन पर है सुरक्षा का दायित्व
वही धर्मान्धों के मध्य खड़े
हो कर उनका हौसला
बढ़ा रहें हैं, सत्ता
मोह में चूर
हो कर
ग़रीब
सनातनियों का घर जला रहे हैं, वही जयचंद
की भूमिका निभा रहे हैं, हज़ार ग़ज़नवियों
को बुला रहे हैं, ताकि उनका सिंहासन
सलामत रहे, काश हम एकता के
सूत्र में बंध पाते, अपने ही
देश में शांति से जी
पाते, काश
उतार
फेंकते राजनायकों के छद्म भेष, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष ।
- - शांतनु सान्याल 

18 अप्रैल, 2025

अनुयायी - -

सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन, सहस्त्र फूल हैं

सिरहाने, ये और बात है कि ख़ाली जेब
ढूंढते हैं जीने के बहाने, अहाते का
उम्रदराज़ नीम तकता है मुझे
बड़ी हैरत से, आख़िर
क्या है उसके
दिल में
वही
जाने, सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन, सहस्त्र
फूल हैं सिरहाने । हमसफ़र मेरी कहती
है रिश्तों की डोर ताने रक्खो, घुट्टी
में उसने सीखा है वृश्चिक
मातृत्व का मंत्र,
निःस्व हो
जाने
का
सुख, मैं भी चल पड़ता हूँ उसी पथ में एक
अनुयायी बन अपना दायित्व निभाने,
सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन,
सहस्त्र फूल हैं सिरहाने ।
- - शांतनु सान्याल 

17 अप्रैल, 2025

निवृत्त भूमिका - -

रिश्तों के रंग बिरंगे लिफ़ाफ़े अक्सर

खोल कर देखता हूँ गोखुर झील,
टीले, घाटी सब हैं पूरी तरह
से सैलाब में डूबे हुए,
मृत किनारों को
मिल जाते
हैं नए
वारिसदार, मानचित्र के किसी एक
अस्पष्ट बिंदु पर विस्मृत पड़ा
रहता है खंडहरनुमा दिल
का डाकघर, ऊसर
भूमि के रास्ते
कोई नहीं
चलता
दूर
तक, बाँसवन में है अभी तक मौजूद
आदिम कुछ दीवार, मृत किनारों
को मिल जाते हैं नए
वारिसदार । कौन
संभाले रखता
है पुराने
ख़त,
बेवजह जो जगह घेरते हों, लोग बड़ी
सहजता से फाड़ कर फेंक देते हैं
शब्द बंधन, दूर ध्वनि से भी
कर जाते हैं किनाराकशी,
बहुत आसान है कहना
रॉन्ग नम्बर ! क्या
फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हारे
होने
या
न होने से, तुम निभा चुके हो अपना
किरदार, मृत किनारों को मिल
जाते हैं नए वारिसदार ।
- - शांतनु सान्याल


15 अप्रैल, 2025

हिमनद के नीचे - -

एक लापता स्रोत, दूर से थम थम कर

आती है जिसकी मद्धम आवाज़,
कोहरे में धुंधले से नज़र आते
हैं कुछ अल्फ़ाज़, किसी
अज्ञात स्वरलिपि में
ज़िन्दगी तलाशती
गुज़िश्ता रात
का टूटा
हुआ
साज़, चाँदनी रात की गहराइयों में हैं
समाधिस्थ असंख्य प्रणय इति -
कथाएं, सामने है खुला
आसमान लेकिन
याद नहीं फ़न
ए परवाज़,
बहुत
कुछ
अपने इख़्तियार में नहीं होता, हर एक
ख़ुशी ज़रूरी नहीं हो उम्रदराज़,
ऊंघते दरख़्तों से हवा करती
सरगोशी, चाँद भी है कुछ
उदास, ये मुमकिन नहीं
उम्र भर कोई बना
रहे ज़िन्दगी के
आसपास,
आँख
बंद
होने के बाद भी काश, बना रहे कोई रूह
ए हमराज़, एक लापता स्रोत, दूर से
थम थम कर आती है जिसकी
मद्धम आवाज़ - -
- - शांतनु सान्याल

14 अप्रैल, 2025

पुनर्मिलन की प्रतिश्रुति - -

द्विधाहीन हो लौट जाओ अपने परिधि के अंदर,

अभी तपने दे मुझे किसी जनशून्य धरा में
आदिम उल्का पिंड की तरह, बसने दे
हृदय तट पर हिमयुग के उपरांत
का नगर, द्विधाहीन हो लौट
जाओ अपने परिधि
के अंदर । उभरने
दे अंतर्मन से
सुप्त नदी
का
विलुप्त उद्गम, सरकने दे मोह का यवनिका दूर
तक, कोहरे में ढके हुए हैं अनगिनत संभ्रम,
न छुओ इस देह को अतृप्त चाह के
वशीभूत, स्वप्न के सिवाय कुछ
भी नहीं है ये आभासी
समंदर, द्विधाहीन
हो लौट जाओ
अपने परिधि
के अंदर ।
इस
सुलगते सतह पर हैं असंख्य नागफणी के जंगल,
शिराओं में बहते हैं जिनके बूंद बूंद हलाहल,
बहुत कठिन है इस पथ से गुजरना, लौट
जाओ यहीं से, सहस्त्र योजन दूर है
क्षितिज पार का वो अनजाना
शहर, द्विधाहीन हो
लौट जाओ
अपने
परिधि के अंदर । जन्म जन्मांतर के इस सांप
सीढ़ी का अंत नहीं निश्चित, कभी शीर्ष
पर खिलती है नियति सोलह सिंगार
लिए, कभी वसुधा के गोद में
पड़े रहते हैं सपने सूखे
पुष्पों के हार लिए,
फिर भी सूखती
नहीं हृदय
सरिता,
बहती
जाती है अनवरत मिलन बिंदु की ओर, मौन
मनुहार लिए, लौट आना उस दिन जब
बुझ जाए अग्निमय बवंडर,अभी
द्विधाहीन हो लौट जाओ
अपने परिधि के
अंदर ।।
- - शांतनु सान्याल

12 अप्रैल, 2025

कुछ पल और साथ रहते - -

उत्सव का कोलाहल थम जाता है जोश

का ज्वार उतरते ही, अंदर महल की
दुनिया ढूँढती है चाँदनी रात में
गुमशुदा सुकूँ का ठिकाना,
उठ जाती है तारों की
महफ़िल भी शेष
पहर, बुझ
जाते
हैं सभी चिराग़ अंधकार के पिघलते ही,
उत्सव का कोलाहल थम जाता है
जोश का ज्वार उतरते ही ।
बिखरे पड़े हैं बेतरतीब
से गुज़रे पलों के
ख़ूबसूरत
मोती,
बस एहसास के चमक दिल में रहे बाक़ी,
क्षितिज पार कहीं आज भी खिलते
हैं अभिलाष के नाज़ुक से फूल,
हृदय कमल के बहुत अंदर
रहती है सुरभित कोई
ज्योति, मालूम है
मुझे नदी का
अपने आप
सिमट
जाना, परछाई भी संग छोड़ जाती है
चाँदनी रात के ढलते ही, उत्सव
का कोलाहल थम जाता है
जोश का ज्वार
उतरते ही ।
- - शांतनु सान्याल




08 अप्रैल, 2025

रिक्त अंचल - -

दिल की गहराइयों में है जमा अगाध जलधार,

रेत को हटा कर, तुम अंजुरी कभी भर न पाए,
अजस्र आँचल बिखरे पड़े हैं धरातल के ऊपर,
आसक्ति के वशीभूत ख़ुश्बू ज़मीं पे झर न पाए,
अदृश्य परिधि के अंदर गढ़ते रहे अपनी दुनिया,
ओस बन के नभ से नीचे निःशर्त बिखर न पाए,
मंदिर कलश अनछुआ रहा अभिलाष बढ़े सही,
अनेक गंतव्य फिर भी सत्य पथ से गुज़र न पाए,
अन्तःप्रवाह कुछ और था बाह्यप्रकाश झिलमिल,
पद्मपात था निर्मल पारदर्शी नेह बूँद ठहर न पाए,
नियति का रेखागणित, अपनी जगह था परिपूर्ण,
मोतियों के हैं अंबार फिर भी अंचल भर न पाए ।
- - शांतनु सान्याल

05 अप्रैल, 2025

कहाँ हूँ मैं - -

एक अद्भुत अनुभूति से गुज़र रहा हूँ मैं,

अपनी ही परछाई से जैसे डर रहा हूँ मैं,

यूँतो मुस्कुराते हुए लोग हाथ मिलाते हैं,
डूबते दिल की गहराई से उभर रहा हूँ मैं,

रात भर सोचता रहा रुक ही जाऊँ यहीं,
कभी एक सायादार गुलमोहर रहा हूँ मैं,

राजपथ के दोनों तरफ़ हैं विस्मित चेहरे,
आँखों में फिर कोई ख़्वाब भर रहा हूँ मैं,

न कोई जुलूस है, न ही विप्लवी शोरगुल,
जनारण्य के मध्य, एक खंडहर रहा हूँ मैं,

धुँधली साया मां की आवाज़ से बुलाए है,
घर लौट जाऊं, मुद्दतों दर ब दर रहा हूँ मैं,

यक़ीन नहीं होता अपनी ही याददाश्त पर,
ये वही जगह है दोस्तों कभी इधर रहा हूँ मैं,
- - शांतनु सान्याल


03 अप्रैल, 2025

विकल्प विहीन - -

दो चकमक पत्थरों के बीच की चिंगारी,दूर तक जला जाती है स्मृति नगर सारी,

पड़े रहते हैं कुछ एक अधजले अनुभूति,
फिर भी जीवन का चलना रहता है जारी,

अनवरत चलायमान है देह का पुनर्वासन,
एकमेव जन्म में, हज़ार जन्मों की तैयारी,

आसपास बिखरे पड़े हैं असंख्य आत्माएं,
सहज नहीं कहना, कब आए अपनी बारी,

कागज़ी फूल ही सही ये रिश्तों की दुनिया,
गन्धहीन कोषों में बसता है प्रणय भिखारी,

दीवार से लटकी पड़ी है एक बूढ़ी बंद घड़ी,
वक़्त का ऋण चुकाना पड़ता है बहुत भारी,

कोई विकल्प काम नहीं आता अंतिम पहर,
सामने खड़े हैं जब धर्मराज दंड गदा धारी ।
- - शांतनु सान्याल

31 मार्च, 2025

अशेष तृष्णा - -

असमाप्त ही रहे अथाह गहराई में उतरने की
अभिलाषा, अदृश्य भोर की तरह तुम 
रहो मेरे बहुत नज़दीक, अंतहीन
संभावनाओं में कहीं पुनर्जन्म
की है आशा, अभी से न 
कहो अलविदा अभी
तो है शैशव -
कालीन
अंधकार, रात्रि को ज़रा पहुंचने दो वयःसंधि
पड़ाव के उस पार, संकुचित निशि पुष्प
के गंध कोषों में अभी तक है एक
अजीब सी   द्विधा, बिखरने
से पहले मधु संचय भी
ज़रूरी है, साँसों
में घुलने दो
सुरभित
स्पृहा,
सब कुछ आसानी से ग़र हो हासिल, तब -
समय से पहले मर जाती है जिज्ञासा,
असमाप्त ही रहे अथाह गहराई 
में उतरने की अभिलाषा ।
शब्दहीनता को बढ़ने
दो बंजर भूमि की
तरह दूर दूर
तक, मरु
उद्यान
की तलाश रहे अधूरा, जीवन न बने नीरस कुछ
और बढ़े जीने की अदम्य पिपासा, असमाप्त 
ही रहे अथाह गहराई में उतरने की
अभिलाषा ।।
- - शांतनु सान्याल

27 मार्च, 2025

पुनर्प्राप्ति - -

अस्तगामी सूर्य के साथ डूब जाता है विगत काल,

धीरे धीरे सभी स्मृतियां, अंध घाटियों में हो
जाती हैं विलीन, क्रमशः जीवन बढ़
चला है धूसर पथ से हो कर
अंधकारमय गुफाओं
में, यहीं से आत्म
खोज का
होता है
आरंभ,
बिखरे पड़े हैं चारों तरफ देह के बाह्य - अंतर्वस्त्र,
निःशब्द कर जाता है फिर से दर्पण का
सवाल, अस्तगामी सूर्य के साथ
डूब जाता है विगत काल ।
आदिम युग से बहुत
जल्दी लौट आता
है अस्तित्व
मेरा
पुनः समेटता है बिखरे हुए अंग प्रत्यंग के खोलों को, रखता है सहेज कर एक एक संवेदनाओं
को उनके अंदर किसी सीप की तरह,
रात्रि सहसा बढ़ चली है गहन
सागरीय मायांचल की
तरफ, एक अदृश्य
स्पर्श मुझे कर
जाती है
शापमुक्त, देह के क्षत विक्षत अंग फिर भर चले हैं
आहिस्ता आहिस्ता, पुनः जी उठा हूँ मैं इस
पल सब कुछ खूबसूरत है बहरहाल,
अस्तगामी सूर्य के साथ डूब
जाता है विगत
काल ।
- - शांतनु सान्याल



19 मार्च, 2025

आहत प्रहरी - -

गली के उस पार से उठा बवंडर दूर तक

धुआं फैला गया, बिखरे पड़े हैं हर
तरफ पत्थरों के टुकड़े, और
आदिमयुगीन बर्बरता के
निशान, चेहरे में भय,
आतंक के साए,
टूटे हुए मंदिर
के कपाट,
शहर
की हवाओं में जाने कौन ज़हर बिखरा
गया, गली के उस पार से उठा
बवंडर दूर तक धुआं फैला
गया । कल शाम शहर
में था भेड़ियों का
अप्रत्याशित
आक्रमण,
सांध्य
पूजा
के पहले मृत्यु का आमंत्रण, प्रहरी भी
थे बेपरवाह अपने आप में निमग्न,
हिंस्र पशु नोचते रहे निरीह
मानव अंग, कुछ देर यूँ
लगा हम आज भी
जी रहे हैं मध्य
प्रस्तर युग
में कहीं,
मुद्दतों से शांत धरातल को सहसा कोई
दहला गया, गली के उस पार से
उठा बवंडर दूर तक धुआं
फैला गया । हर कोई
सोचने को है
मजबूर
कि
वन्य पशुओं से ख़ुद को कैसे बचाया
जाए, बस इसी एक बिंदु पर
गुज़रा हुआ कल अंदर
तक अदृश्य अनल
सुलगा गया,
गली के
उस पार से उठा बवंडर दूर तक धुआं
फैला गया - -
- - शांतनु सान्याल

17 मार्च, 2025

मन दर्पण - -

उम्र की ढलान पर है शून्यता की छाया,

पिंजर द्वार हैं उन्मुक्त, विहंगम नभ
फेंक रहा उड़ान पाश, फिर भी
मन पाखी नही चाहता
छोड़ना बंदीगृह,
बहुत कठिन
है छोड़ना
सभी मोह माया, उम्र की ढलान पर
है शून्यता की छाया । मंदिर घाट
की सीढ़ियों से उतर कर जल
स्पर्श द्वारा सिंधु पार की है
कल्पना, काश सहज
होता फल्गु नदी
के पार देह
का नव
रूप
में ढलना, हज़ार बार देखा मन दर्पण
वही बिम्ब धूसर, वही माटी की
काया, उम्र की ढलान पर
है शून्यता की छाया ।
- - शांतनु सान्याल

16 मार्च, 2025

अन्तःप्रवाह - -

जन अरण्य में खोजता हूँ एक अदद

परछाइयों का चेहरा, न जाने
कहाँ खो गए चाहने वालों
की जमात, एक मृग -
तृष्णा से कुछ
कम नहीं
ताउम्र
साथ रहने की बात, किताबों में यूँ
तो बहुत कुछ लिखा था, मरु
उद्यान से ले कर स्वर्ग की
अप्सराओं के असंख्य
किस्से, यहाँ भी हैं
एकाकी वहाँ
भी पसरा
हुआ
है सघन कोहरा,जन अरण्य में
खोजता हूँ एक अदद
परछाइयों का
चेहरा ।
इस
राह के मुसाफ़िर का सफ़र कभी
नहीं होता पूरा, गन्तव्य से भी
कहीं आगे है यायावर
यात्रियों का डेरा,
फिर भी जी
चाहता है
कि
तुम चलो मेरे संग दूर तक, अंतिम
प्रहर तक थामे रखो निःश्वास
बंधन, अभी तक क्षितिज
पर है अंधेरे का शख़्त
पहरा, जन अरण्य
में खोजता हूँ
एक अदद
परछाइयों
का
चेहरा । सहस्त्र अभिलाष अंतहीन
स्वप्न के रेगिस्तान, बहोत कुछ
पाने की चाहत का होता
नहीं कोई अवसान,
कभी ज़रा सी
चीज़ पर
मिल
जाए खोया हुआ ख़ज़ाना, और
कभी बहुत कुछ मिलने के
बाद भी जीवन लगे
अनंत वीराना,
शून्य के
अंदर
ही
रहता है गुमशुदा कोलाहल, ख़ुद
के भीतर ही रहता है मौजूद
एक झील अथाह गहरा,
जन अरण्य में
खोजता हूँ
एक
अदद परछाइयों का चेहरा ।
- - शांतनु सान्याल

11 मार्च, 2025

शाश्वत सत्य - -

मध्य रात्रि, निस्तब्ध सारा शहर,

बिखरे पड़े हैं प्राचीर के
पुरातन पत्थर,
बाह्य परत
पर बूंद
बूंद
ओस कण, गहन अंतरतम में तुम
बांध चुके हो स्थायी घर, मध्य
रात्रि, निस्तब्ध सारा
शहर । चिर बंदी
होना चाहे
सदियों
का
बंजारापन तुम्हारे वक्षःस्थल के
अंदर, शिराओं से हो कर
बहता जाए प्रणय
रस, अनंत
पथ की
ओर
अग्रसर, देह प्राण डूब चले हैं
क्रमशः, सुदूर खींचे लिए
जाए निःसीम तुम्हारे
नयन गह्वर, मध्य
रात्रि, निस्तब्ध
सारा
शहर । न तुम अब तुम हो न मेरा
कोई पृथक अस्तित्व, एक
दूजे से मिल कर अब
हैं एकाकार, अपने
लिए इस पल
में नारी
पुरुष
सब
एक बराबर, अधरों के मिलन बिंदु
पर जीवन रहता है अजर
अमर, कोई भेद नहीं
इस क्षण क्या
सुधा और
क्या
प्राणघातक ज़हर, मध्य रात्रि,
निस्तब्ध सारा
शहर ।।
- - शांतनु सान्याल

02 मार्च, 2025

सुदूर कहीं - -

 

उनिंद से हैं बोझिल सितारों की सुदूर अंजुमन,

रात ढले महकना चाहे बेक़रार दिल का चमन,

प्रसुप्त कोशिकाओं में सजलता भर गया कोई,
न जाने कौन मधुऋतु की तरह छू गया अंतर्मन,

हवाओं में है अद्भुत सी मंत्रमुग्धता का एहसास,
वन्य नदी के किनार फिर खिल उठे हैं महुलवन,

एक मायावी तरंग जो शरीर से रूह तक है उतरे,
इक संदली स्पर्श जो कर जाए नम जीवन दहन,

हर तरफ हैं अनगिनत बंदिशों के पाषाणी दीवार,
जाने कौन खिंचे लिए जाए अपने साथ ज़बरन ।
- - शांतनु सान्याल

24 फ़रवरी, 2025

अदृश्य बिम्ब - -


अपने अंदर छुपे हुए ग्रंथि का आविष्कार करें,

प्रतिबिंबित परिभाषा को दिल से स्वीकार करें,

न तुम हो पारसमणि न मैं कोई शापित पाषाण,
दर्पण को रख सर्वोपरि आपस में व्यवहार करें,

मिट्टी का देह ले कर पत्थर के शहर में रहना है,
ज़रा सी चोट से सहम जाएं इतना न प्यार करें,

निगाहों की पट्टियां न खुले तराज़ू के झोंकों से,
हृदय तल के खंडित मंदिरों का पुनरूद्धार करें,

एक ही असमाप्त पथ के हम सभी हैं सहयात्री,
दुःख सुख के साए में टूटे स्वप्नों को साकार करें,
- - शांतनु सान्याल


21 फ़रवरी, 2025

पलाश पथ - -

शून्यता के भीतर जो अदृश्य लहर हैं मौजूद

उसी अंध- प्रवाह में तुम्हें करता हूँ मैं तलाश,

भीड़ में खो जाने की कला ही है जिजीविषा
फिर भी लौट आता हूँ अंततः तुम्हारे ही पास,

आकाशगंगा की तरह है चाहतों का अंतरिक्ष
देह - प्राण से हो कर गुज़रता है प्रणय प्रवास,

अक्सर ख़ुद को भुला करते हैं अन्य को याद
दस्तक नहीं होती बस आगंतुक का है क़यास,

इसी पल में निहित है सभी ऋतुओं का आनंद
उल्लसित हृदय के लिए हर दिन रहे मधुमास,

सीमित विकल्प हैं फिर भी गुज़रना है लाज़िम
जीवन के सफ़र में हमेशा नहीं खिलते पलाश ।
- - शांतनु सान्याल

14 फ़रवरी, 2025

राहत - -

उस गलि के अंत में दिखता है डूबते सूरज का मंज़र,

बेइंतहा चाहतें हैं बाक़ी बेक़रार दिल के बहोत अंदर,

उन सीढ़ियों के नीचे उतरना है हर एक को एक दिन,
अभी से क्यूं जाऊं उधर अभी ज़िन्दगी है बहोत सुंदर,

निगाहों में कहीं बहती है इक उजालों की  स्रोतस्विनी,
मंज़िल ख़ुद हो जब रुबरु क्यूं कर भटकूं इधर - उधर,

उष्ण दोपहर में भी उस का स्पर्श बने चंदन की परछाई,
उम्र भर का खारापन सोख ले पल भर में प्रणय समंदर,

लौट आएंगे सभी एक दिन ख़ुद से भागे हुए बंजारे लोग,
दिल के सिवाय राहत कहीं नहीं  फ़क़ीर हो या सिकंदर ।
- - शांतनु सान्याल



05 फ़रवरी, 2025

अनुत्तरित - -

ताशघर की तरह बिखरे पड़े हैं कांच के ख़्वाब,

आईना चाहता है नीरव पलों के उन्मुक्त जवाब,

आख़री पहर रात का जिस्म उतर गया सूली से,
भोर से पहले क़फ़न दफ़न हो जाएगी कामयाब,

तमाम नक़ली मुखौटे उतर जाएंगे सुबह के साथ,
हृदय तट पर बिखरे पड़े रहेंगे मृत सीप बेहिसाब,

अख़बार के पन्नों में उसका ज़िक्र कहीं नहीं मिला,
सारे शहर में यूं कहने को था वो इक मोती नायाब,

इस दुनिया का अपना अजीब है रवायत ए इंसाफ़,
एक हाथ में स्वर्ण मुद्रा तो दूजे में है पवित्र किताब,
- - शांतनु सान्याल

04 फ़रवरी, 2025

दृश्यहीन - -

दृश्यहीन हो कर भी तुम जुड़े हुए हो बहोत अंदर तक,

इक नदी ख़ानाबदोश बहती है पहाड़ों  से समंदर तक,


तुम चल रहे हो परछाई की तरह अंतहीन पथ की ओर,

जाग चले हैं एहसास, बियाबान से ले कर खंडहर तक,


ये नज़दीकियां ही जीला जाती हैं अभिशप्त पत्थरों को,

डूबती हुई कश्तियों को खींच लाती हैं संग ए लंगर तक,


न जाने कहाँ कहाँ लोग ढूंढते हैं राज़ ए सुकून का रास्ता,

लौटा ले जाती हैं वो ख़ामोश निगाहें मुझे अपने घर तक,


इक अद्भुत सी मंत्रमुग्धता है उसकी रहस्यमयी छुअन में,

राहत ए मरहम हो जैसे कोई सुलगते क़दमों के सफ़र में ।

- - शांतनु सान्याल











25 जनवरी, 2025

ज़िन्दगी - -

न जाने कितने बिंदुओं पर भटकती है ज़िन्दगी,

शमा की तरह लम्हा लम्हा सिहरती है ज़िन्दगी,

लौट चुके हैं, सभी चाहने वाले अपने अपने घर,
किसी की याद में भला कहाँ ठहरती है ज़िन्दगी,

मंदिर ओ नदी के दरमियां फ़ासला कुछ भी नही,
जलस्पर्श के लिए मुश्किल से उतरती है ज़िन्दगी,

सारा शहर ख़्वाब की दुनिया में है कहीं खो चुका,
तन्हा दूर जाने किस आस में निकलती है ज़िन्दगी,

वीरां राहों में साया के सिवा कोई संग नहीं चलता,
नग्न - सत्य के परिधानों में तब संवरती है ज़िन्दगी,

भष्म की ढेर में, न जाने कौन मेरा जिस्म तलाशे है,
जितना कुरेदो वजूद को उतना बिखरती है ज़िन्दगी,
- - शांतनु सान्याल

22 जनवरी, 2025

उपशम - -

वेदना और मस्तिष्क के मध्य समझौता

ही जीवन का खूबसूरत उपशम है,
जो नयन कोण में थम कर
जीने का राज़ कह जाए
वही बूंद असली
शबनम है,
वो टूट कर बिखर गया किसी आदिम
सितारे की तरह उसका ग़म है
बेमानी,जो दिखाई ही न
दे उसकी तलाश में
है ये सारी दुनिया,
जबकि मुझे
चाहने
वाला
मेरे दिल की गहराई में हरदम है, वो
डूब कर छूना चाहे मुक्ति द्वार के
कपाट, मैं ख़ुद से उभर कर
चाहता हूँ उसे छूना,
आसपास यूँ तो
कोई नहीं,
फिर
भी न जाने क्यूं लगता है, कोई तो यहां
हमक़दम है, हमारे दरमियान कुछ
भी नहीं गोपनीय, देह प्राण
सब कुछ है एकाकार,
एक अखण्ड
दहन में
जल
रहे हैं हम सभी, और हाथ तुम्हारे चिर
शांति का मरहम है, जो नयन
कोण में थम कर जीने
का राज़ कह जाए
वही बूंद असली
शबनम है ।।
- - शांतनु सान्याल

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