16 जून, 2025

जीवनोत्सव - -

आलोकित पोशाक के अंदर है आदिम काया,

अतृप्त अभिलाषों का मरुभूमि है दूर
तक प्रसारित, ख़्वाबों के उड़ान
पुलों पर दौड़ता सा दिखाई
दे मेरा अपना ही साया,
अपने हिस्से की
रौशनी हर
किसी
ने समेट ली, कदाचित मैं जीवनोत्सव में कुछ
देर से आया, आलोकित पोशाक के अंदर
है आदिम काया । ज़रूरी नहीं कि
स्वर्ण प्याले से ही प्यास बुझे,
अंजुरी भर जल ही
काफ़ी है ताज़ा -
दम होने के
लिए, हार
जीत
अपनी जगह थी पहाड़ के मुक़ाबिल रहा एक
अदद झरना, चट्टानों के दरमियां अनवरत
बह कर उसने ख़ुद का रास्ता बनाया,
वक़्त का रोना था बेवजह, क़समों
की फ़ेहरिस्त है बहुत लम्बी
ये और बात है कि किस
ने कितना साथ
निभाया,
आलोकित पोशाक के अंदर है आदिम काया ।
- - शांतनु सान्याल



11 जून, 2025

सतह के नीचे - -

विनिद्र मेरी आँखें देखती हैं क्षितिज

पार, हस्त रेखाओं में हैं सिमटे
हुए जीवन सार, शीर्षक
विहीन ही रही हृदय
तल की कथा,
अपने सिवा
कोई
नहीं सुनता अंतर व्यथा, सभी प्रतिरोध
के बाद भी जाना है पारापार, हस्त
रेखाओं में हैं सिमटे हुए जीवन
सार । हम दौड़ते रहे उम्रभर
मायाविनी रात के पीछे,
अथाह गहराइयां थी
स्तम्भित धरातल
के नीचे, मुक्त
हो न सके
जकड़ता
रहा
मोह का कारागार, हस्त रेखाओं में हैं
सिमटे हुए जीवन सार । बहुत
दिनों के बाद जब खोली
नेह की गठरी, अपने
हिस्से में शून्य,
चारों दिशाएं
गूंगी बहरी,
अनवरत
निम्नगामी होते हैं रिश्तों के जलधार,
हस्त रेखाओं में हैं सिमटे
हुए जीवन सार ।
- - शांतनु सान्याल 

04 जून, 2025

वापसी - -

सभी नदियां सागर में अंततः जाती हैं मिल,

दिनांत में सभी पंछी लौट आते हैं अपने
घर, सुबह और शाम का चक्र कभी
रुकता नहीं, गतिशील रंगमंच
में वक़्त के साथ अदाकार
बदल जाते हैं, नए
परिवेश में नई
भूमिका,
जीवन के सफ़र में अंतहीन होते हैं मंज़िल,
सभी नदियां सागर में अंततः जाती
हैं मिल । दूरगामी रेल के सह
यात्री की तरह लोग मिल
कर खो जाते हैं दुनिया
की भीड़ में, यादें
टेलीफोन के
तार में
परिंदों की तरह झूलते से नज़र आते हैं,
गुज़रे पल तेज़ी से पीछे छूट जाते हैं
खेत खलियान, बबूल खजूर के
पेड़, पहाड़ी नदी, पुल, सब
कुछ जो हमारे आसपास
थे क्रमशः हो जाते हैं
धूमिल, सभी
नदियां
सागर में अंततः जाती हैं मिल । एहसास
फिर भी बना रहता है अरण्य फूल
की ख़ुश्बू की तरह अंदर तक,
न जाने क्या खिंचाव है जो
हर हाल में लौटा लाता
है हमें अपनी धुरी
में, उस चार
दिवारी से
जैसे
हम वचनबद्ध हों जीने मरने के लिए हमारा
सामयिक सन्यास टूट जाता है अपने
आप, इस पराजय में ही रहता है
उम्र भर का हासिल, सभी
नदियां सागर में अंततः
जाती हैं मिल ।
- - शांतनु सान्याल

31 मई, 2025

ढलान - -

शून्य हथेलियों में गिन रहा हूँ अमूल्य पहर,
आश्चर्य से तकता है मुझे ये दर्पण का नगर,

एक अद्भुत सा ठहराव है परिचित चेहरों में,
हर हाल में है गतिशील ये जीवन का सफ़र,

दीर्घ अंतर्यात्रा का है अपना भिन्न ही सौंदर्य,
चाँद के डूबते ही समुद्रतट भी जाता है उतर,

वो सारे मुस्कुराते पल अल्बम में गए सिमट,
जिनके लिए पीछा किया हमने ज़िन्दगी भर,

कुछ अनुभूति, हमेशा रह जाती हैं अनदेखी,
क्रमशः सप्तरंगी अभिलाष हो जाते हैं धूसर,

नातेदारी के समीकरण सहज नहीं होते हल,
फिर भी लगाना पड़ता है मुहब्बत का मोहर ।
- - शांतनु सान्याल

30 मई, 2025

अंतस्सलिला - -

न जाने कितने घुमरी छुपाए सीने में

नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर, वो कभी सुप्त
अग्नि तो कभी हिम -
नद सी है गहन
स्थिर, बहुधा
प्रवहमान्
लहरों
के
संग ले जाए सुदूर अपने समानांतर,
जाने कितने घुमरी छुपाए सीने में
नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर । कोई वशीकृत
पंछी की तरह मैं पंख
अपने कटवाना
चाहूँ, चाह
कर भी,

खुले आसमान में उड़ना चाहूँ, वो प्रणय
जाल है या मोह का कण्टक वन,
जितना उभरूँ उतना डूबता
जाऊँ, कदाचित नदी
जाने है कोहरे में
लिपटे हुए
रहस्यमय
जंतर मंतर, न जाने कितने घुमरी छुपाए
सीने में नदी बहती है मेरे अस्तित्व के
अभ्यंतर ।
- - शांतनु सान्याल

25 मई, 2025

अशेष संवाद - -

बहुत कुछ कह चुका फिर भी बहुत कुछ

कहना है बाक़ी, अभी अभी सांध्य
प्रदीप जले हैं चौबारों में, अभी
तक नदी के सीने में है
मौजूद सूरज के
कुछ रक्तिम
पदचिन्ह,
अभी
तो है ये प्रारंभ, अंतरतम स्रोत का मंथर
गति से तमाम रात गुज़रना है बाक़ी,
बहुत कुछ कह चुका फिर भी
बहुत कुछ कहना है
बाक़ी । हमारे
मध्य का
सेतु
जोड़े रखता है किनारे की उथल पुथल को,
वो प्रेम है या स्पृहा, अपरिभाषित कोई
नेह बंधन, जो भी हो, हमें रखता है
बांधे एक दूजे के अंदर तक,
अंकुरित बीज की तरह
अभिलाष रहते हैं
भूगर्भस्थ, कुछ
और गहनता
बढ़े कुछ
और
सपनों को पंख लगे, ओस बूँदों के संग मिल
कर ख़ुश्बू की तरह अंतर्मन में अभी
घुलना है बाक़ी, बहुत कुछ कह
चुका फिर भी बहुत कुछ
कहना है बाक़ी ।
- - शांतनु सान्याल

अधिकार - -

जल स्पर्श से गहराई का अंदाज़ नही होता,

टोह पाने के लिए पानी में उतरना है
ज़रूरी, ये दुनिया है सितमगर
सरल रेखा पर चलने नहीं
देगी, साहिल न सरक
जाए बहोत दूर,
वक़्त से
पहले
सतह पर उभरना है ज़रूरी, टोह पाने के
लिए पानी में उतरना है ज़रूरी । मुझे
अंदाज़ था वो शपथ ले के मुकर
जाएगा लेकिन ये भी यक़ीन
था अपनी नज़र में वो
एक दिन ख़ुद ही
गिर जाएगा,
कुछ बातें
होती
है बेहद कड़वी फिर भी जीने के लिए उन्हें
निगलना है ज़रूरी, टोह पाने के लिए
पानी में उतरना है ज़रूरी । वो
दख़ल करना चाहे रफ़्ता
रफ़्ता ज़मीन, मकान,
मुझे अपने ही
देश में जला
वतन कर
के, अस्तित्व रक्षा के लिए हाथों में अस्त्र
ले कर निकलना है ज़रूरी, टोह पाने
के लिए पानी में उतरना
है ज़रूरी ।
- - शांतनु सान्याल 

23 मई, 2025

अपना अपना बाइस्कोप - -

गुज़रे थे कभी हम भी, गुलमोहरी रहगुज़र से,

बहुत कुछ खो के पाया, ज़िन्दगी के सफ़र से,

कभी चाँद रात, तो कभी अंधकार मुसलसल,
चंद ख़्वाब सजाए बचा के दुनिया के नज़र से,

भटका किए यूं तो भीड़ भरी राहों में दर ब दर,
कभी रहे मुक्कमल बेख़बर, अपने ही शहर से,

सुबह ओ शाम के दरमियां, बदलते रहे सफ़ात,
किताब ए जीस्त ढूंढ लाए मुहोब्बत के डगर से,

सलीब रहा अपनी जगह जिस्म ओ जां नदारत,
अक्सर हम भी दौड़े मसीहाई की झूठी ख़बर से,

न जाने कौन कायाकल्प की अफ़वाह उड़ा गया,
हर शख़्स है मुन्तज़िर जीस्त बहाली के असर से, 

दिखाते हैं लोग अपने बाइस्कोप से जन्नती रास्ता,
इस पागलपन को ज़मीं पे लाए हैं जाने किधर से,
- - शांतनु सान्याल



22 मई, 2025

अपने हिस्से की चाँदनी - -

रात गहराते ही कोलाहल को विराम मिला,

ऊंघता अंध गायक, अर्धसुप्त सारमेय,
जन शून्य रेल्वे प्लेटफार्म, अंतहीन
नीरवता का साम्राज्य, ज़िन्दगी
को चंद घड़ियों का आराम
मिला, रात गहराते ही
कोलाहल को
विराम
मिला ।
उभर चले हैं सितारों के अनगिनत कारवां,
हिसाब कोई नहीं रखता नक्षत्र के टूट
कर बिखरने का, निशि  पुष्पों को
है हर हाल में गिरना धरा की
धूल में, कुछ स्मृति सुरभि
रह जायेंगे सृष्टि के
कैनवास में,
हर एक
को
निभानी है अपनी अपनी भूमिका, सब
नियति के हाथों है नियंत्रित, व्यर्थ
है सोचना किस को कितना
ईनाम मिला, रात गहराते
ही कोलाहल को
विराम मिला ।
- - शांतनु सान्याल

17 मई, 2025

जन्मस्थान - -

कोहरे की आत्मजा अरण्य नदी, उम्र भर

का दर्द समेटे बहती है चट्टानों के
दरमियान, कभी ओझल
कभी आकाशीय
आभा लिए
सीने में,
सरल रेखाओं के हमराह चलना ज़िन्दगी
नहीं, हर चीज़ ग़र दहलीज़ में हो
मय्यसर फिर कुछ भी मज़ा
नहीं जीने में, अंतिम बिंदु
का भय, मिथक से
अधिक कुछ भी
नहीं, जहाँ
रास्ता
ख़त्म हो वहीं समझ लें आसपास दूसरा
रास्ता है विद्यमान, कोहरे की
आत्मजा अरण्य नदी,
उम्र भर का दर्द
समेटे बहती
है चट्टानों
के दरमियान । कभी बारिश में काग़ज़ की
नाव बहा के देखो, हथेलियों में जल
बिंदुओं को सजा के देखो, यक़ीन
मानों हर चीज़ आसान नज़र
आएगी, ये जो उमस भरी
रात है अभी इस पल
देखते देखते यूँ ही
गुज़र जाएगी,
इक हल्की
सी लकीर
जो बहुत
दूर
नज़र आती है वहीं पर कहीं है उजालों
का जन्मस्थान, कोहरे की आत्मजा
अरण्य नदी, उम्र भर का दर्द
समेटे बहती है चट्टानों के
दरमियान ।
- - शांतनु सान्याल 

14 मई, 2025

शून्य अवशिष्ट - -

गुम होते होते आख़िर में कुछ भी नहीं बचता

खोने के लिए, ख़ुद को उजाड़ कर चाँद,
बिखेर जाता है चाँदनी हर तरफ,
गली कूचों से निकल दिल
के अंध कोनों तक,
बारिश में भीगी
हुई वादियाँ
भेजती
हैं चिट्ठियाँ, शेष रात्रि, रिक्त हाथों में कुछ भी
नहीं बचता स्वप्न बीज दोबारा बोने के
लिए, गुम होते होते आख़िर में कुछ
भी नहीं बचता खोने के लिए ।
निर्जला मैदान में कोई
निःसंग पखेरू, न
जाने किस
अज्ञात
करुण
सुर में गीत गाता रहा, क्रमशः उसकी आवाज़
भी छायापथ में कहीं खो गई, सभी स्वप्न
कल्पनाएं इसी तरह दूरवर्ती किसी
महाशून्य में खो जाएंगे, प्रतिश्रुति
के तमाम मोती बिखरे पड़े
रहते हैं धरा की गोद में
बस हम नहीं होते
हैं उन्हें करीने
से पिरोने
के लिए,
गुम होते होते आख़िर में कुछ भी नहीं बचता
खोने के लिए ।
- - शांतनु सान्याल 

30 अप्रैल, 2025

लहू का रंग एक है - -

क्या तुम्हारे ज़ख्म है इन्सानी और हमारे

घाव हैं ज़ख्म ए काफ़िर, ये न भूलो
कि हर ज़ुल्म की सज़ा है
मुकर्रर, इसी ज़मीन
पे, इसी दौर में,
तुम छुप न
पाओगे
हर हाल में तुम्हें होना है रूबरू हाज़िर,
क्या तुम्हारे ज़ख्म है इन्सानी और
हमारे घाव हैं ज़ख्म ए
काफ़िर । वो ख़ुदा
हो नहीं सकता
जो इंसानों
में धर्म
खोजे,
वो
धर्म हो नही सकता जो धर्म के नाम पर
क़त्लेआम करवाए, वही मज़हब है
सब से ऊँचा जो हर एक इंसान
को सिर्फ़ इंसान सोचे, जो
सच्चा है वही होता है
जग जाहिर, क्या
तुम्हारे ज़ख्म
है इन्सानी
और
हमारे घाव हैं ज़ख्म ए काफ़िर ।
- - शांतनु सान्याल

29 अप्रैल, 2025

आग्नेय आह्वान - -

सीमांत के उस पार है बच्चे का पिता

इस पार आंसू बहाती माँ, दर्द
तेरा - मेरा काश धर्म नहीं
पूछता, तुम्हारा ख़ुदा
है महान तो मेरा
भी सृष्टिकर्ता
है शक्तिमान,
ख़ून की
होली
खेलने की चाहत में कहीं तेरा अस्तित्व
न बन जाए मशान, जो नफ़रत की
बुनियाद पर करना चाहे सारे
ब्रह्माण्ड में राज, उसका
भी एक दिन होता
है आवारा
श्वान
रूपी अवसान, अंतर्निहित शत्रु का पता
करना होता है कठिन, दीमक की
तरह जो कर जाते हैं मानचित्र
को खोखला, बाहर के
दुश्मन को फ़तह
करना है बहुत
आसान,
अब
उठो भी गहरी नींद से जाग कि माँ भारती
का रक्तरंजित देह तुम्हें दर्द से है
पुकारता, देश के ख़ातिर
देना है अपने प्राणों
का बलिदान ।
- - शांतनु सान्याल

19 अप्रैल, 2025

प्रश्न चिन्हित अस्तित्व - -

रक्तिम सीमांत में जलते हुए मठ मंदिर,

निरीह लोगों का पलायन, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष,
अश्रुझरित आंखें पूछती हैं
उनका आख़िर दोष
क्या है, कहाँ चले
गए मुहोब्बत
के दुकान
वाले,
किस पर यक़ीन करे जब पड़ौसी ही लूट
ले घर अपना, अपने ही देश में हो
जाएं शरणार्थी, गांव जल रहे
हैं शहर हैं धुआं धुआं,
मानवता का दम
भरने वाले
छुपे बैठे
हैं जाने
कहाँ,
क्या यही है मेरा देश तुम्हारा देश, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष ।
जिन पर है सुरक्षा का दायित्व
वही धर्मान्धों के मध्य खड़े
हो कर उनका हौसला
बढ़ा रहें हैं, सत्ता
मोह में चूर
हो कर
ग़रीब
सनातनियों का घर जला रहे हैं, वही जयचंद
की भूमिका निभा रहे हैं, हज़ार ग़ज़नवियों
को बुला रहे हैं, ताकि उनका सिंहासन
सलामत रहे, काश हम एकता के
सूत्र में बंध पाते, अपने ही
देश में शांति से जी
पाते, काश
उतार
फेंकते राजनायकों के छद्म भेष, भयाक्रांत
शिशु, टूटे हुए मूर्तियों के अवशेष ।
- - शांतनु सान्याल 

18 अप्रैल, 2025

अनुयायी - -

सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन, सहस्त्र फूल हैं

सिरहाने, ये और बात है कि ख़ाली जेब
ढूंढते हैं जीने के बहाने, अहाते का
उम्रदराज़ नीम तकता है मुझे
बड़ी हैरत से, आख़िर
क्या है उसके
दिल में
वही
जाने, सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन, सहस्त्र
फूल हैं सिरहाने । हमसफ़र मेरी कहती
है रिश्तों की डोर ताने रक्खो, घुट्टी
में उसने सीखा है वृश्चिक
मातृत्व का मंत्र,
निःस्व हो
जाने
का
सुख, मैं भी चल पड़ता हूँ उसी पथ में एक
अनुयायी बन अपना दायित्व निभाने,
सुरभित स्वप्नशय्या में हूँ लीन,
सहस्त्र फूल हैं सिरहाने ।
- - शांतनु सान्याल 

17 अप्रैल, 2025

निवृत्त भूमिका - -

रिश्तों के रंग बिरंगे लिफ़ाफ़े अक्सर

खोल कर देखता हूँ गोखुर झील,
टीले, घाटी सब हैं पूरी तरह
से सैलाब में डूबे हुए,
मृत किनारों को
मिल जाते
हैं नए
वारिसदार, मानचित्र के किसी एक
अस्पष्ट बिंदु पर विस्मृत पड़ा
रहता है खंडहरनुमा दिल
का डाकघर, ऊसर
भूमि के रास्ते
कोई नहीं
चलता
दूर
तक, बाँसवन में है अभी तक मौजूद
आदिम कुछ दीवार, मृत किनारों
को मिल जाते हैं नए
वारिसदार । कौन
संभाले रखता
है पुराने
ख़त,
बेवजह जो जगह घेरते हों, लोग बड़ी
सहजता से फाड़ कर फेंक देते हैं
शब्द बंधन, दूर ध्वनि से भी
कर जाते हैं किनाराकशी,
बहुत आसान है कहना
रॉन्ग नम्बर ! क्या
फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हारे
होने
या
न होने से, तुम निभा चुके हो अपना
किरदार, मृत किनारों को मिल
जाते हैं नए वारिसदार ।
- - शांतनु सान्याल


15 अप्रैल, 2025

हिमनद के नीचे - -

एक लापता स्रोत, दूर से थम थम कर

आती है जिसकी मद्धम आवाज़,
कोहरे में धुंधले से नज़र आते
हैं कुछ अल्फ़ाज़, किसी
अज्ञात स्वरलिपि में
ज़िन्दगी तलाशती
गुज़िश्ता रात
का टूटा
हुआ
साज़, चाँदनी रात की गहराइयों में हैं
समाधिस्थ असंख्य प्रणय इति -
कथाएं, सामने है खुला
आसमान लेकिन
याद नहीं फ़न
ए परवाज़,
बहुत
कुछ
अपने इख़्तियार में नहीं होता, हर एक
ख़ुशी ज़रूरी नहीं हो उम्रदराज़,
ऊंघते दरख़्तों से हवा करती
सरगोशी, चाँद भी है कुछ
उदास, ये मुमकिन नहीं
उम्र भर कोई बना
रहे ज़िन्दगी के
आसपास,
आँख
बंद
होने के बाद भी काश, बना रहे कोई रूह
ए हमराज़, एक लापता स्रोत, दूर से
थम थम कर आती है जिसकी
मद्धम आवाज़ - -
- - शांतनु सान्याल

14 अप्रैल, 2025

पुनर्मिलन की प्रतिश्रुति - -

द्विधाहीन हो लौट जाओ अपने परिधि के अंदर,

अभी तपने दे मुझे किसी जनशून्य धरा में
आदिम उल्का पिंड की तरह, बसने दे
हृदय तट पर हिमयुग के उपरांत
का नगर, द्विधाहीन हो लौट
जाओ अपने परिधि
के अंदर । उभरने
दे अंतर्मन से
सुप्त नदी
का
विलुप्त उद्गम, सरकने दे मोह का यवनिका दूर
तक, कोहरे में ढके हुए हैं अनगिनत संभ्रम,
न छुओ इस देह को अतृप्त चाह के
वशीभूत, स्वप्न के सिवाय कुछ
भी नहीं है ये आभासी
समंदर, द्विधाहीन
हो लौट जाओ
अपने परिधि
के अंदर ।
इस
सुलगते सतह पर हैं असंख्य नागफणी के जंगल,
शिराओं में बहते हैं जिनके बूंद बूंद हलाहल,
बहुत कठिन है इस पथ से गुजरना, लौट
जाओ यहीं से, सहस्त्र योजन दूर है
क्षितिज पार का वो अनजाना
शहर, द्विधाहीन हो
लौट जाओ
अपने
परिधि के अंदर । जन्म जन्मांतर के इस सांप
सीढ़ी का अंत नहीं निश्चित, कभी शीर्ष
पर खिलती है नियति सोलह सिंगार
लिए, कभी वसुधा के गोद में
पड़े रहते हैं सपने सूखे
पुष्पों के हार लिए,
फिर भी सूखती
नहीं हृदय
सरिता,
बहती
जाती है अनवरत मिलन बिंदु की ओर, मौन
मनुहार लिए, लौट आना उस दिन जब
बुझ जाए अग्निमय बवंडर,अभी
द्विधाहीन हो लौट जाओ
अपने परिधि के
अंदर ।।
- - शांतनु सान्याल

12 अप्रैल, 2025

कुछ पल और साथ रहते - -

उत्सव का कोलाहल थम जाता है जोश

का ज्वार उतरते ही, अंदर महल की
दुनिया ढूँढती है चाँदनी रात में
गुमशुदा सुकूँ का ठिकाना,
उठ जाती है तारों की
महफ़िल भी शेष
पहर, बुझ
जाते
हैं सभी चिराग़ अंधकार के पिघलते ही,
उत्सव का कोलाहल थम जाता है
जोश का ज्वार उतरते ही ।
बिखरे पड़े हैं बेतरतीब
से गुज़रे पलों के
ख़ूबसूरत
मोती,
बस एहसास के चमक दिल में रहे बाक़ी,
क्षितिज पार कहीं आज भी खिलते
हैं अभिलाष के नाज़ुक से फूल,
हृदय कमल के बहुत अंदर
रहती है सुरभित कोई
ज्योति, मालूम है
मुझे नदी का
अपने आप
सिमट
जाना, परछाई भी संग छोड़ जाती है
चाँदनी रात के ढलते ही, उत्सव
का कोलाहल थम जाता है
जोश का ज्वार
उतरते ही ।
- - शांतनु सान्याल




08 अप्रैल, 2025

रिक्त अंचल - -

दिल की गहराइयों में है जमा अगाध जलधार,

रेत को हटा कर, तुम अंजुरी कभी भर न पाए,
अजस्र आँचल बिखरे पड़े हैं धरातल के ऊपर,
आसक्ति के वशीभूत ख़ुश्बू ज़मीं पे झर न पाए,
अदृश्य परिधि के अंदर गढ़ते रहे अपनी दुनिया,
ओस बन के नभ से नीचे निःशर्त बिखर न पाए,
मंदिर कलश अनछुआ रहा अभिलाष बढ़े सही,
अनेक गंतव्य फिर भी सत्य पथ से गुज़र न पाए,
अन्तःप्रवाह कुछ और था बाह्यप्रकाश झिलमिल,
पद्मपात था निर्मल पारदर्शी नेह बूँद ठहर न पाए,
नियति का रेखागणित, अपनी जगह था परिपूर्ण,
मोतियों के हैं अंबार फिर भी अंचल भर न पाए ।
- - शांतनु सान्याल

05 अप्रैल, 2025

कहाँ हूँ मैं - -

एक अद्भुत अनुभूति से गुज़र रहा हूँ मैं,

अपनी ही परछाई से जैसे डर रहा हूँ मैं,

यूँतो मुस्कुराते हुए लोग हाथ मिलाते हैं,
डूबते दिल की गहराई से उभर रहा हूँ मैं,

रात भर सोचता रहा रुक ही जाऊँ यहीं,
कभी एक सायादार गुलमोहर रहा हूँ मैं,

राजपथ के दोनों तरफ़ हैं विस्मित चेहरे,
आँखों में फिर कोई ख़्वाब भर रहा हूँ मैं,

न कोई जुलूस है, न ही विप्लवी शोरगुल,
जनारण्य के मध्य, एक खंडहर रहा हूँ मैं,

धुँधली साया मां की आवाज़ से बुलाए है,
घर लौट जाऊं, मुद्दतों दर ब दर रहा हूँ मैं,

यक़ीन नहीं होता अपनी ही याददाश्त पर,
ये वही जगह है दोस्तों कभी इधर रहा हूँ मैं,
- - शांतनु सान्याल


03 अप्रैल, 2025

विकल्प विहीन - -

दो चकमक पत्थरों के बीच की चिंगारी,दूर तक जला जाती है स्मृति नगर सारी,

पड़े रहते हैं कुछ एक अधजले अनुभूति,
फिर भी जीवन का चलना रहता है जारी,

अनवरत चलायमान है देह का पुनर्वासन,
एकमेव जन्म में, हज़ार जन्मों की तैयारी,

आसपास बिखरे पड़े हैं असंख्य आत्माएं,
सहज नहीं कहना, कब आए अपनी बारी,

कागज़ी फूल ही सही ये रिश्तों की दुनिया,
गन्धहीन कोषों में बसता है प्रणय भिखारी,

दीवार से लटकी पड़ी है एक बूढ़ी बंद घड़ी,
वक़्त का ऋण चुकाना पड़ता है बहुत भारी,

कोई विकल्प काम नहीं आता अंतिम पहर,
सामने खड़े हैं जब धर्मराज दंड गदा धारी ।
- - शांतनु सान्याल

31 मार्च, 2025

अशेष तृष्णा - -

असमाप्त ही रहे अथाह गहराई में उतरने की
अभिलाषा, अदृश्य भोर की तरह तुम 
रहो मेरे बहुत नज़दीक, अंतहीन
संभावनाओं में कहीं पुनर्जन्म
की है आशा, अभी से न 
कहो अलविदा अभी
तो है शैशव -
कालीन
अंधकार, रात्रि को ज़रा पहुंचने दो वयःसंधि
पड़ाव के उस पार, संकुचित निशि पुष्प
के गंध कोषों में अभी तक है एक
अजीब सी   द्विधा, बिखरने
से पहले मधु संचय भी
ज़रूरी है, साँसों
में घुलने दो
सुरभित
स्पृहा,
सब कुछ आसानी से ग़र हो हासिल, तब -
समय से पहले मर जाती है जिज्ञासा,
असमाप्त ही रहे अथाह गहराई 
में उतरने की अभिलाषा ।
शब्दहीनता को बढ़ने
दो बंजर भूमि की
तरह दूर दूर
तक, मरु
उद्यान
की तलाश रहे अधूरा, जीवन न बने नीरस कुछ
और बढ़े जीने की अदम्य पिपासा, असमाप्त 
ही रहे अथाह गहराई में उतरने की
अभिलाषा ।।
- - शांतनु सान्याल

27 मार्च, 2025

पुनर्प्राप्ति - -

अस्तगामी सूर्य के साथ डूब जाता है विगत काल,

धीरे धीरे सभी स्मृतियां, अंध घाटियों में हो
जाती हैं विलीन, क्रमशः जीवन बढ़
चला है धूसर पथ से हो कर
अंधकारमय गुफाओं
में, यहीं से आत्म
खोज का
होता है
आरंभ,
बिखरे पड़े हैं चारों तरफ देह के बाह्य - अंतर्वस्त्र,
निःशब्द कर जाता है फिर से दर्पण का
सवाल, अस्तगामी सूर्य के साथ
डूब जाता है विगत काल ।
आदिम युग से बहुत
जल्दी लौट आता
है अस्तित्व
मेरा
पुनः समेटता है बिखरे हुए अंग प्रत्यंग के खोलों को, रखता है सहेज कर एक एक संवेदनाओं
को उनके अंदर किसी सीप की तरह,
रात्रि सहसा बढ़ चली है गहन
सागरीय मायांचल की
तरफ, एक अदृश्य
स्पर्श मुझे कर
जाती है
शापमुक्त, देह के क्षत विक्षत अंग फिर भर चले हैं
आहिस्ता आहिस्ता, पुनः जी उठा हूँ मैं इस
पल सब कुछ खूबसूरत है बहरहाल,
अस्तगामी सूर्य के साथ डूब
जाता है विगत
काल ।
- - शांतनु सान्याल



19 मार्च, 2025

आहत प्रहरी - -

गली के उस पार से उठा बवंडर दूर तक

धुआं फैला गया, बिखरे पड़े हैं हर
तरफ पत्थरों के टुकड़े, और
आदिमयुगीन बर्बरता के
निशान, चेहरे में भय,
आतंक के साए,
टूटे हुए मंदिर
के कपाट,
शहर
की हवाओं में जाने कौन ज़हर बिखरा
गया, गली के उस पार से उठा
बवंडर दूर तक धुआं फैला
गया । कल शाम शहर
में था भेड़ियों का
अप्रत्याशित
आक्रमण,
सांध्य
पूजा
के पहले मृत्यु का आमंत्रण, प्रहरी भी
थे बेपरवाह अपने आप में निमग्न,
हिंस्र पशु नोचते रहे निरीह
मानव अंग, कुछ देर यूँ
लगा हम आज भी
जी रहे हैं मध्य
प्रस्तर युग
में कहीं,
मुद्दतों से शांत धरातल को सहसा कोई
दहला गया, गली के उस पार से
उठा बवंडर दूर तक धुआं
फैला गया । हर कोई
सोचने को है
मजबूर
कि
वन्य पशुओं से ख़ुद को कैसे बचाया
जाए, बस इसी एक बिंदु पर
गुज़रा हुआ कल अंदर
तक अदृश्य अनल
सुलगा गया,
गली के
उस पार से उठा बवंडर दूर तक धुआं
फैला गया - -
- - शांतनु सान्याल

17 मार्च, 2025

मन दर्पण - -

उम्र की ढलान पर है शून्यता की छाया,

पिंजर द्वार हैं उन्मुक्त, विहंगम नभ
फेंक रहा उड़ान पाश, फिर भी
मन पाखी नही चाहता
छोड़ना बंदीगृह,
बहुत कठिन
है छोड़ना
सभी मोह माया, उम्र की ढलान पर
है शून्यता की छाया । मंदिर घाट
की सीढ़ियों से उतर कर जल
स्पर्श द्वारा सिंधु पार की है
कल्पना, काश सहज
होता फल्गु नदी
के पार देह
का नव
रूप
में ढलना, हज़ार बार देखा मन दर्पण
वही बिम्ब धूसर, वही माटी की
काया, उम्र की ढलान पर
है शून्यता की छाया ।
- - शांतनु सान्याल

16 मार्च, 2025

अन्तःप्रवाह - -

जन अरण्य में खोजता हूँ एक अदद

परछाइयों का चेहरा, न जाने
कहाँ खो गए चाहने वालों
की जमात, एक मृग -
तृष्णा से कुछ
कम नहीं
ताउम्र
साथ रहने की बात, किताबों में यूँ
तो बहुत कुछ लिखा था, मरु
उद्यान से ले कर स्वर्ग की
अप्सराओं के असंख्य
किस्से, यहाँ भी हैं
एकाकी वहाँ
भी पसरा
हुआ
है सघन कोहरा,जन अरण्य में
खोजता हूँ एक अदद
परछाइयों का
चेहरा ।
इस
राह के मुसाफ़िर का सफ़र कभी
नहीं होता पूरा, गन्तव्य से भी
कहीं आगे है यायावर
यात्रियों का डेरा,
फिर भी जी
चाहता है
कि
तुम चलो मेरे संग दूर तक, अंतिम
प्रहर तक थामे रखो निःश्वास
बंधन, अभी तक क्षितिज
पर है अंधेरे का शख़्त
पहरा, जन अरण्य
में खोजता हूँ
एक अदद
परछाइयों
का
चेहरा । सहस्त्र अभिलाष अंतहीन
स्वप्न के रेगिस्तान, बहोत कुछ
पाने की चाहत का होता
नहीं कोई अवसान,
कभी ज़रा सी
चीज़ पर
मिल
जाए खोया हुआ ख़ज़ाना, और
कभी बहुत कुछ मिलने के
बाद भी जीवन लगे
अनंत वीराना,
शून्य के
अंदर
ही
रहता है गुमशुदा कोलाहल, ख़ुद
के भीतर ही रहता है मौजूद
एक झील अथाह गहरा,
जन अरण्य में
खोजता हूँ
एक
अदद परछाइयों का चेहरा ।
- - शांतनु सान्याल

11 मार्च, 2025

शाश्वत सत्य - -

मध्य रात्रि, निस्तब्ध सारा शहर,

बिखरे पड़े हैं प्राचीर के
पुरातन पत्थर,
बाह्य परत
पर बूंद
बूंद
ओस कण, गहन अंतरतम में तुम
बांध चुके हो स्थायी घर, मध्य
रात्रि, निस्तब्ध सारा
शहर । चिर बंदी
होना चाहे
सदियों
का
बंजारापन तुम्हारे वक्षःस्थल के
अंदर, शिराओं से हो कर
बहता जाए प्रणय
रस, अनंत
पथ की
ओर
अग्रसर, देह प्राण डूब चले हैं
क्रमशः, सुदूर खींचे लिए
जाए निःसीम तुम्हारे
नयन गह्वर, मध्य
रात्रि, निस्तब्ध
सारा
शहर । न तुम अब तुम हो न मेरा
कोई पृथक अस्तित्व, एक
दूजे से मिल कर अब
हैं एकाकार, अपने
लिए इस पल
में नारी
पुरुष
सब
एक बराबर, अधरों के मिलन बिंदु
पर जीवन रहता है अजर
अमर, कोई भेद नहीं
इस क्षण क्या
सुधा और
क्या
प्राणघातक ज़हर, मध्य रात्रि,
निस्तब्ध सारा
शहर ।।
- - शांतनु सान्याल

02 मार्च, 2025

सुदूर कहीं - -

 

उनिंद से हैं बोझिल सितारों की सुदूर अंजुमन,

रात ढले महकना चाहे बेक़रार दिल का चमन,

प्रसुप्त कोशिकाओं में सजलता भर गया कोई,
न जाने कौन मधुऋतु की तरह छू गया अंतर्मन,

हवाओं में है अद्भुत सी मंत्रमुग्धता का एहसास,
वन्य नदी के किनार फिर खिल उठे हैं महुलवन,

एक मायावी तरंग जो शरीर से रूह तक है उतरे,
इक संदली स्पर्श जो कर जाए नम जीवन दहन,

हर तरफ हैं अनगिनत बंदिशों के पाषाणी दीवार,
जाने कौन खिंचे लिए जाए अपने साथ ज़बरन ।
- - शांतनु सान्याल

24 फ़रवरी, 2025

अदृश्य बिम्ब - -


अपने अंदर छुपे हुए ग्रंथि का आविष्कार करें,

प्रतिबिंबित परिभाषा को दिल से स्वीकार करें,

न तुम हो पारसमणि न मैं कोई शापित पाषाण,
दर्पण को रख सर्वोपरि आपस में व्यवहार करें,

मिट्टी का देह ले कर पत्थर के शहर में रहना है,
ज़रा सी चोट से सहम जाएं इतना न प्यार करें,

निगाहों की पट्टियां न खुले तराज़ू के झोंकों से,
हृदय तल के खंडित मंदिरों का पुनरूद्धार करें,

एक ही असमाप्त पथ के हम सभी हैं सहयात्री,
दुःख सुख के साए में टूटे स्वप्नों को साकार करें,
- - शांतनु सान्याल


21 फ़रवरी, 2025

पलाश पथ - -

शून्यता के भीतर जो अदृश्य लहर हैं मौजूद

उसी अंध- प्रवाह में तुम्हें करता हूँ मैं तलाश,

भीड़ में खो जाने की कला ही है जिजीविषा
फिर भी लौट आता हूँ अंततः तुम्हारे ही पास,

आकाशगंगा की तरह है चाहतों का अंतरिक्ष
देह - प्राण से हो कर गुज़रता है प्रणय प्रवास,

अक्सर ख़ुद को भुला करते हैं अन्य को याद
दस्तक नहीं होती बस आगंतुक का है क़यास,

इसी पल में निहित है सभी ऋतुओं का आनंद
उल्लसित हृदय के लिए हर दिन रहे मधुमास,

सीमित विकल्प हैं फिर भी गुज़रना है लाज़िम
जीवन के सफ़र में हमेशा नहीं खिलते पलाश ।
- - शांतनु सान्याल

14 फ़रवरी, 2025

राहत - -

उस गलि के अंत में दिखता है डूबते सूरज का मंज़र,

बेइंतहा चाहतें हैं बाक़ी बेक़रार दिल के बहोत अंदर,

उन सीढ़ियों के नीचे उतरना है हर एक को एक दिन,
अभी से क्यूं जाऊं उधर अभी ज़िन्दगी है बहोत सुंदर,

निगाहों में कहीं बहती है इक उजालों की  स्रोतस्विनी,
मंज़िल ख़ुद हो जब रुबरु क्यूं कर भटकूं इधर - उधर,

उष्ण दोपहर में भी उस का स्पर्श बने चंदन की परछाई,
उम्र भर का खारापन सोख ले पल भर में प्रणय समंदर,

लौट आएंगे सभी एक दिन ख़ुद से भागे हुए बंजारे लोग,
दिल के सिवाय राहत कहीं नहीं  फ़क़ीर हो या सिकंदर ।
- - शांतनु सान्याल



05 फ़रवरी, 2025

अनुत्तरित - -

ताशघर की तरह बिखरे पड़े हैं कांच के ख़्वाब,

आईना चाहता है नीरव पलों के उन्मुक्त जवाब,

आख़री पहर रात का जिस्म उतर गया सूली से,
भोर से पहले क़फ़न दफ़न हो जाएगी कामयाब,

तमाम नक़ली मुखौटे उतर जाएंगे सुबह के साथ,
हृदय तट पर बिखरे पड़े रहेंगे मृत सीप बेहिसाब,

अख़बार के पन्नों में उसका ज़िक्र कहीं नहीं मिला,
सारे शहर में यूं कहने को था वो इक मोती नायाब,

इस दुनिया का अपना अजीब है रवायत ए इंसाफ़,
एक हाथ में स्वर्ण मुद्रा तो दूजे में है पवित्र किताब,
- - शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past