क्या तुम्हारे ज़ख्म है इन्सानी और हमारे घाव हैं ज़ख्म ए काफ़िर, ये न भूलो
कि हर ज़ुल्म की सज़ा है
मुकर्रर, इसी ज़मीन
पे, इसी दौर में,
तुम छुप न
पाओगे
हर हाल में तुम्हें होना है रूबरू हाज़िर,
क्या तुम्हारे ज़ख्म है इन्सानी और
हमारे घाव हैं ज़ख्म ए
काफ़िर । वो ख़ुदा
हो नहीं सकता
जो इंसानों
में धर्म
खोजे,
वो
धर्म हो नही सकता जो धर्म के नाम पर
क़त्लेआम करवाए, वही मज़हब है
सब से ऊँचा जो हर एक इंसान
को सिर्फ़ इंसान सोचे, जो
सच्चा है वही होता है
जग जाहिर, क्या
तुम्हारे ज़ख्म
है इन्सानी
और
हमारे घाव हैं ज़ख्म ए काफ़िर ।
- - शांतनु सान्याल