कुछ नाज़ुक लम्हों को ढक दिया रेशमी लिहाफ़ से, निःशब्द
बातें होती रही दो सांसों
के दरमियां रात भर,
कितने सितारे
उभरे और
डूबे हमें
मालूम
नहीं रात भर, कहकशां की ओर
यूँ ही बहते रहे सुदूर अपने
आप से, कुछ नाज़ुक
लम्हों को ढक
दिया रेशमी
लिहाफ़
से । ज़माने का क्या गढ़ने दो उन्हें
अपने उसूलों के शब्दकोश,
उन ख़ूबसूरत पलों में
आख़िर किसे
रहता है
ज़रा
भी होश, रूहों को फ़ुरसत नहीं
होती दिलों के वार्तालाप से,
कुछ नाज़ुक लम्हों को
ढक दिया
रेशमी
लिहाफ़ से ।
- - शांतनु सान्याल
































