30 अक्टूबर, 2022

अक़ीदत - -

उथले साहिल से यूँ मझधार का ठिकाना पूछते हो,
काश, रूह की गहराइयों में, कभी उतर कर देखते,

न जाने किस आस में रुका रहा अध खिला गुलाब,
रूबरू चश्मे आईना, कुछ देर ज़रा ठहर कर देखते,

ज़िन्दगी का कड़ुआ सच रहे अपनी जगह बरक़रार,
किसी और की ख़ातिर ही सही सज संवर कर देखते,

यूँ तो हर एक मोड़ पर हैं बेशुमार कोह आतिशफिशां,
कुछ एक कदम 
मेरे हमराह कभी यूँ ही गुज़र कर देखते,

कहते हैं यक़ीं पर ही ठहरा हुआ है ये नीला आसमां,
सीना ए संदूक पर, ज़ेवर ए वफ़ा को नज़्र कर देखते,
* *
- - शांतनु सान्याल
   
 

29 अक्टूबर, 2022

अपने अंदर - -

मेरी रूह को तितलियों का पैरहन मिले,
जो भी छुए उसे अहसास ए मरहम मिले,

वो शख़्स जो हर वक़्त मुस्कुराता मिला,
क़रीब से देखा तो, आंखें पुर नम निकले,

हज़ार ख़ुदाओं का नूर था उसके चेहरे पे,
उस बच्चे के अलावा सभी भरम निकले,

कलश ओ मीनार के बीच है लंबा फ़ासला,
खोटे सिक्के की तरह सभी धरम निकले,

मीनाबाज़ार की है हर सू बेइंतहा रौशनाई,
रिश्तों के खिलौने मिट्टी के सनम निकले,

न जाने कितने टुकड़ों में बटेगा ये चमन,
एक घर से हज़ार रंग के परचम निकले,

रंगीन पैबन्दों से उन्हें ख़्वाबों का गुमां है,
जिस्म पे मेरे बेशुमार दर्दो अलम निकले,

हंगामा क्यूं कर बरपा एक रोटी की चोरी पे,
शहर में न जाने कितने ही जरायम निकले,
* *
- - शांतनु सान्याल   
 
       
 

 
 

28 अक्टूबर, 2022

हमारे सिवा कोई नहीं - -

कितना भी अमूल्य क्यों न हो सुनहरे
फ्रेम में जड़ा हुआ आईना, शून्य
से अधिक उसकी क़ीमत
नहीं होती, अगर
कोई न हो उसे
निहारने
वाला,
निष्प्राण झूलती रहती है स्मृति स्तंभ
पर बंद दीवार घड़ी, समय नहीं
रुकता चाहे कोई हो या न
हो पुकारने वाला। इसी
पृथ्वी के हैं हम
अधिवासी,
इसी के
सीने
में है कहीं अंतिम विश्रामगृह, चाहे हो
आकाश पथ पर, या ज़मीं के नीचे
अपना ठिकाना, हम से ही है
गुलज़ार यहाँ मुहोब्बत
का चमन, हमारे
सिवा कोई
नहीं इस
को
सँवारने वाला, कितना भी अमूल्य - -
क्यों न हो सुनहरे फ्रेम में जड़ा
हुआ आईना, शून्य से
अधिक उसकी क़ीमत
नहीं होती, अगर
कोई न हो उसे
निहारने
वाला।
न जाने किस मायावी स्वर्ग की लोग
बात करते हैं अभी तो जीवन का
सफ़र अधूरा है, इसी गृह में
है जीना मरना, इसी
में है दोबारा
लौट के
आना,
मुक्ति रेखा है बेहद जटिल, नेहों की  -
भाषा है सरल, भावों से भरा -
पूरा, हमारे आलावा कोई
नहीं हम को राह
दिखाने वाला,
कितना
भी अमूल्य क्यों न हो सुनहरे फ्रेम में
जड़ा हुआ आईना, शून्य से
अधिक उसकी क़ीमत
नहीं होती, अगर
कोई न हो उसे
निहारने
वाला।
* *
- - शांतनु सान्याल

27 अक्टूबर, 2022

न जाने कौन था - -

उजाड़, शुष्क आंखों से शून्य में तकता
हुआ, न जाने कौन था वो अज्ञात
आदमी, लहूलुहान मुट्ठियों
में था उसके विफल
विप्लव की
कहानी,
महा -
नगर की भीड़ भरी बस्तियों में रह कर
भी अपने आप में था वो बेहद
एकाकी, कोई विक्षिप्त
था या गहन रूह
का मालिक,
जिस के
दिल
का छाया पथ कभी नहीं धुंधलाया, वो
कोई मूक आर्तनाद था या राख
के अंदर दबा हुआ अंगार,
एक निःशब्द गर्जना
जो परिपूर्णता
से कभी
गरज
नहीं
पाया, अपने ही लोगों में था वो बहुत ही
अनजान, इतिहास के पृष्ठों में रहा
वो अवर्णित, जिस ने कभी
झोंक दी थी अपनी
पूरी जवानी,    
न जाने
कौन
था वो अज्ञात आदमी, लहूलुहान मुट्ठियों
में था उसके विफल विप्लव की
कहानी ।
* *
- - शांतनु सान्याल
न जाने कौन था - - video form










26 अक्टूबर, 2022

अन्तर प्रवाह - -

मैं अपनी जगह हूँ स्थिर, किसी काष्ठ पुल
की तरह, एक अनाम अरण्य नदी
बहती है मेरे अस्तित्व के
बहुत अंदर, सुदूर
कहीं से आ
रही है
घंटियों की मधुर ध्वनि, जाग रहा है कोई
खंडहरों के मध्य, विस्मृत सा पुरातन
मंदिर, प्रणय स्रोत बहे जा रहे हैं
अजस्र धाराओं में, जाने
किधर है उन्मुक्त
नील समंदर,
एक
अनाम अरण्य नदी बहती है मेरे अस्तित्व
के बहुत अंदर। चंचल समय, हथेलियों
से निकल कर तितलियों के हमराह
उड़ चला है, बहुत दूर, ऊँचे
दरख़्त, जंगल, पहाड़,
ख़ूबसूरत वादियां,
फूलों से लदी
घाटियों,
से हो
कर, अंतहीन है उनका ये अनजान सफ़र,
हिय के भीतर सजता है अक्सर,
नए चाहतों का उजड़ा हुआ
शहर, एक अनाम
अरण्य नदी
बहती है
मेरे
अस्तित्व के बहुत अंदर। इस क्षण भंगुर
जीवन में होते हैं अनगिनत नेहों के
पुल, जिसकी नीचे बहती है
सहस्त्र जलधारा, कुछ
सूख जाते हैं
मुहाने
से
पहले, कुछ पहुंचते हैं सागर की असमाप्त
गहराई तक, दरअसल अंतरतम का
सौंदर्य होता है हमारे बहुत ही
नज़दीक, लेकिन हम
खोजते हैं उनको
जो रखते
नहीं
हमारी ख़बर, एक अनाम अरण्य नदी - -
बहती है मेरे अस्तित्व के बहुत
अंदर।  
* *
- - शांतनु सान्याल 

अन्तर प्रवाह - - VIDEO FORM



25 अक्टूबर, 2022

आगंतुक पल - -

ज़िन्दगी की परिभाषा, एक मुसाफ़िरख़ाने से
ज्यादा कुछ भी नहीं, किसे ख़बर, कल
सुबह कौन है आनेवाला, कुछ धूसर
आकृतियों के मध्य हैं मौजूद
कुछ रंगीन उपलब्धियां,
कांच के घरों से है
यूँ तो नदी
बहुत
दूर, फिर भी उसे पाने का ख़्वाब हर हाल में
देखती हैं बहुरंगी मछलियां, कुछ
अनाहूत लोग मिल जाते हैं
अचानक ही, कुछ
अंतरंग चेहरे
खो जाते
हैं धुंध
की वादियों में, हम ढूंढते हैं उन्हें किसी ग़लत
ठिकाने पर, वो कहीं नहीं मिलता, राह
भटका जाता है वही, जो था राह
दिखाने वाला, ज़िन्दगी
की परिभाषा, एक
मुसाफ़िरख़ाने
से ज्यादा
कुछ भी
नहीं, किसे ख़बर, कल सुबह कौन है आनेवाला ।
रात और दिन के दरमियां झूलते हैं कुछ
आतिथ्य क्षण, कुछ निराशाओं
की भीड़, कुछ स्याह, कुछ
शुभ्र वर्ण, हम करते
हैं हर एक पल
का स्वागत,
हर किसी
को है
एक दिन छोड़ना सांसों का पांथशाला, कोई नहीं
इस जग में अनंतकाल तक, अपने संग
ठहराने वाला, ज़िन्दगी की परिभाषा,
एक मुसाफ़िरख़ाने से ज्यादा
कुछ भी नहीं, किसे
ख़बर, कल
सुबह
कौन है आनेवाला - -
* *
- - शांतनु सान्याल
आगंतुक पल - - in video form 








24 अक्टूबर, 2022

राजस्व विहीन आश्रय - - -

जब कभी बढ़ जाती है मेरे अंदर की निराशा,
तब मैं ढूंढता हूँ निसर्ग का राजस्व -
विहीन आश्रय, किसी शांत
झील का किनारा, मुझ
से कहते हैं मंथर
स्रोत, कि
क्यों
न किया जाए पुनर्विचार, जीवन को संवारा
जाए दोबारा, मैं महसूस करता हूँ अंध
सितारों का आलोकमय नज़ारा,
तब मैं ढूंढता हूँ निसर्ग का
राजस्व विहीन आश्रय,
किसी शांत झील
का किनारा ।
अचानक
मैं ख़ुद
को
पाता हूँ ख़ुद के बेहद क़रीब, जहाँ जल रहे
हैं अनगिनत चिराग़, मैं लौट आता
हूँ अमावस की रात से पूर्णिमा
की ज़मीं पर, भूल कर
सभी राग विराग,
अनुभव करता
हूँ बच्चों
की
किलकारियों में कहीं पक्षियों का अनुनाद,
मिल जाता है ज़िन्दगी को जीने का
सहारा, मैं महसूस करता हूँ
अंध सितारों का
आलोकमय
नज़ारा ।
* *
- - शांतनु सान्याल
राजस्व विहीन आश्रय - - - in video form


23 अक्टूबर, 2022

अदृश्य सेतु के नीचे - -

उम्र ज़रा सी लम्बी हो जाती है, जब कभी हम
रखते हैं अपना सर, किसी गहन वक्ष -
स्थल पर, उस अतल गहराई को
रिश्तों में बांधना है बहुत ही
कठिन, तब ज़िन्दगी
लगती है सद्य -
स्नाता, वो
रचती है
एक
नयी परिभाषा, पुरातन शब्दों के भंवर जाल
से निकल कर, जब कभी हम रखते हैं
अपना सर, किसी गहन वक्ष -
स्थल पर। चार दीवारों के
झुरमुठ में, झर जाते
हैं सभी नीति -
मूलक
मुखौटे, देह होता है पल्लव विहीन कोई
चिनार का दरख़्त, यथार्थ का लिबास
होता है पारदर्शी, उभर आते हैं
अपने आप ऊसर भूमि,
उग आते हैं अदृश्य
कांटेदार नागफणी,
टूट जाते हैं
सभी
मानव निर्मित मिथक सेतु, चाहे जितना
भी हम चलें सधे पांव संभल कर,
उम्र ज़रा सी लम्बी हो जाती
है, जब कभी हम रखते
हैं अपना सर, किसी
गहन वक्षस्थल
पर - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
अदृश्य सेतु के नीचे - - IN VIDEO FORM



 

22 अक्टूबर, 2022

अनजान डगर के जुगनू - -

कांच के बक्सों में हैं बंद तमाम गुड़ियाघर,
चीनी मिट्टी के वो सभी काचित रिश्ते,
भावशून्य नज़रों से देखते हैं एक
दूसरे को, खोजते हैं अक्सर
जुगनुओं के ठिकाने,
कदाचित कहीं
कोई जी
रहा
हो घुप्प अंधेरे में अकेला, दिवाली की रात
है रंग मशालों के बीच कहीं खो जाते
हैं आसपास के धूसर चेहरे, रुक
जाता है बैठकख़ाने तक आ
कर हमारा प्रगतिशील
सफ़र, कांच के
बक्सों में
हैं बंद
तमाम गुड़ियाघर । बिखरे पड़े रहते है राज
पथ के दोनों तरफ बुझे हुए आतिशों
के कंकाल, मध्य रात, फुटपाथ
पर सो रहा है कोई टूटी हुई
बेँच पर, ख़्वाबों की
मैली चादर
डाल,
थम चुकी है आतिशबाज़ी, धुंधला धुंधला
सा है चंद्र विहीन आकाश, लोग फिर
उलझे हुए हैं एक दूसरे में तलाश
करते हुए तुरूफ़ का इक्का,
उनके लिए है अभी
तो बाहर की
दुनिया
केवल अर्थहीन और बकवास, जुगनुओं की
भला कोई ज़िन्दगी है, वो भी रात
ढलते उड़ जाएंगे मृत
तितलियों की
डगर,
कांच के बक्सों में हैं बंद तमाम गुड़ियाघर ।
* *
- - शांतनु सान्याल 

अनजान डगर के जुगनू - - IN VIDEO FORM



21 अक्टूबर, 2022

सिलवटों का रहस्य - -

अनंतकाल तक कोई नहीं रहता किसी के
साथ, फिर भी किसी प्रहरी आत्मा की
तरह हम चाहते हैं अदृश्य वृत्त
रेखा अपने आसपास, एक   
ऐसा तिलस्मी संदूक
जिसके अंदर हों
सप्तरंगी
मोहक
रेशमी लिबास, हम चाहते हैं अदृश्य वृत्त
रेखा अपने आसपास। न जाने कितने
तहों में हैं बंद, ख़्वाहिशों के अंबार,
ऊपर से है कुनकुना धरातल,
अंदर में छुपा रहता है
अनबुझा अंगार,
समुद्र तट
पर सूर्य
का  
सहपलायन संयोग था या पूर्व नियोजित,
रात भर अंधेरा करता रहा उजाले की
तलाश, हम चाहते हैं अदृश्य
वृत्त रेखा अपने आसपास।
सिलवटों में कहीं है छुपी
हुई ज़िन्दगी की
कहानी, हम
हर एक
सुबह
हथेलियों से करते हैं उसे सपाट, अक्स
नहीं खोलता लेकिन रहस्य भरा
कपाट, वही दूर तक होती है
अंतहीन ख़ामोशी, उठ
जाते हैं जब मायावी
हाट, तब हम
करते हैं
वृत्त
रेखा से बाहर निकलने का प्रयास, हम
तोड़ना चाहते हैं परिधि रेखा जो
घिरा होता है आसपास !
 * *
- - शांतनु सान्याल    सिलवटों का रहस्य - - in video form
 



 


20 अक्टूबर, 2022

अतृप्त अनुराग - -

ऊंची इमारतों से बचते बचाते आज भी
पहुंचती है सर्दियों की नरम धूप,
पुरातन आरामकुर्सी पर
कोई हो या नहीं,
वो दे जाती
हैं ज़िंदा
होने
का सबूत, बालकनी भी जैसे जी उठता
हो उसके साथ, जी उठते हैं सभी
ज़िन्दगी के गुज़रे हुए पल,
कुछ सुरभित छुअन,
कुछ अदृश्य
सिहरन,
खिल
उठता है धुंधलाए दर्पण में मुरझाया - -
हुआ रूप, ऊंची इमारतों से बचते
बचाते आज भी पहुंचती है
सर्दियों की नरम धूप ।
फिर चिराग़ों को
है दिवाली
का
इंतज़ार, अंधेरे से उजाले की ओर फिर
ज़िन्दगी जाने को है बेक़रार, कोई
यक़ीं करे या नहीं, हर एक रात
उन्मुक्त आकाश का बाट
जोहती है ये ज़मीं,
ख़ुद को ढालना
चाहती है
वो -
आकाश गंगा के अनुरूप, अनगिनत
सितारों का सौंदर्य अनूप, ऊंची
इमारतों से बचते बचाते
आज भी पहुंचती है
सर्दियों की
नरम
धूप ।
* *
- - शांतनु सान्याल  

अतृप्त अनुराग - -VIDEO FORM


 




19 अक्टूबर, 2022

बूंद - बूंद ख़्वाब - -


वो ख़्वाब जो गिरते हैं अंध गुफाओं में बूंद -
बूंद भूमिगत जल की तरह, समय बना
देता है हर एक को झूलता हुआ
बिल्लौरी झाड़ फ़ानूस,
उजालों के हरि -
लूट में लोग
अक्सर
रौंद जाते हैं नाज़ुक भावनाएं बासी फूल - - 
की तरह, वो ख़्वाब जो गिरते हैं अंध
गुफाओं में बूंद - बूंद भूमिगत
जल की तरह। उस मोड़
पर हम नहीं लौटना
चाहते जहाँ से
ज़िन्दगी
ने किया था सफ़र का आगाज़, लेकिन शून्य
मील का पत्थर उम्र भर करता है हमारा
पीछा, चाह कर भी हम उसे नहीं
कर सकते नज़र अंदाज़,
उसे हम ढोते हैं
अपने अंदर
किसी
अदृश्य दख़ल की तरह, वो ख़्वाब जो गिरते
हैं अंध गुफाओं में बूंद - बूंद भूमिगत
जल की तरह। प्रारब्ध का होता
है अपना ही अलग विधान,
कल, आज और परसों
के मध्य झूलता
रहता है किसी
लोलक
की
तरह इंसान, कोई नहीं परिपूर्ण सुखी यहाँ -
कुछ आग सुलगते हुए, कुछ दबे रहते
राख के बहुत अंदर, बुझना है
सभी को एक दिन क्या
भिक्षुक और भला
क्या सिकंदर,
फिर भी
हर
हाल में ज़िन्दगी लगती है ख़ूबसूरत किसी
अनदेखे मंज़िल की तरह, वो ख़्वाब
जो गिरते हैं अंध गुफाओं में
बूंद - बूंद भूमिगत जल
की तरह।
* *
- - शांतनु सान्याल
बूंद - बूंद ख़्वाब - - video form

 

 

 






 

16 अक्टूबर, 2022

ख़ुश्बुओं का सुराग - -

मुझे मालूम है दिगंत की सत्यता, कभी
नहीं मिलते पृथ्वी और आकाश, वो
जो एक हल्की सी रेखा उभरती
है सुदूर अँधेरे और उजाले
के दरमियां, बस वही
बांधे रखती इस
ज़िन्दगी को
अपने
साथ, कुछ यादों की परछाइयां, कुछ -
सूखे ज़र्द गुलाब, इसके अलावा
कुछ भी तो नहीं मेरे पास,
मुझे मालूम है दिगंत
की सत्यता, कभी
नहीं मिलते
पृथ्वी
और
आकाश । उम्र के सभी पृष्ठ क्रमशः झर
जाते हैं आख़िर में रह जाता है देह
का कमज़ोर जिल्द बाकि, फिर
भी अनपढ़ा रहता है सांसों
का किताब, हज़ारों
से मुलाक़ात
हुई फिर
भी
हो न सका दिल का मिलाप, कहने को
यूँ तो न जाने कितने ही बार मुझ
से मिले हैं आप, फिर भी यूँ ही
बरक़रार रहा कुहासामय
एकांतवास, मुझे
मालूम है दिगंत
की सत्यता,
कभी
नहीं मिलते पृथ्वी और आकाश । इस
मेले की वास्तविकता अपनी जगह
है स्थिर, घूमते हुए हिंडोले से
लगता है सारा शहर यूँ
तो बहुत ही सुन्दर,
ज़मीं पर हो
बिखरा
हुआ
जैसे आकाशगंगा, रात ढलते ही क्रमशः
खुलने लगते हैं धीरे धीरे रेशमी
मोहपाश, पड़ी रहती है यूँ
ही बेतरतीब सी इत्र -
दानी, उड़ जाते
हैं सभी बूंद -
बूंद
सुवास, मुझे मालूम है दिगंत की सत्यता,
कभी नहीं मिलते पृथ्वी
और आकाश ।
* *
- - शांतनु सान्याल,  ख़ुश्बुओं का सुराग - - IN VIDEO FORM



   


 

14 अक्टूबर, 2022

आईने के उस पार - -

ज़िन्दगी क्या है ये सोचने का समय ही नहीं
मिलता, हम बिना सोचे ही गुज़र जाते
हैं बहुत दूर तक, अचानक चेहरे
की झुर्रियों को देख ठिठक
जाते हैं, बहुत देर के
बाद हम अक्स
के क़रीब
होते
हैं लेकिन उसे पहचान नहीं पाते, हम जान के
भी ख़ुद को जान नहीं पाते। आईने के उस
पार हैं सभी रिले रेस के सह खिलाड़ी,
अपनी अपनी कामयाबी का
जश्न मनाते हुए, हमारे
हिस्से की धूप से
हमें कोई भी
शिकायत
नहीं,
ज़रूरी नहीं कि दिल मिल जाए किसी से हाथ
मिलाते हुए, उजालों की चाहत किसे नहीं
होती, लेकिन ये भी सच है कि हर
एक सुबह को लोग मेहरबान
नहीं पाते, हम जान के
भी ख़ुद को जान
नहीं पाते।
* *
- - शांतनु सान्याल     

video form of आईने के उस पार - -


 

12 अक्टूबर, 2022

कारागृह - -

अक्सर नहीं मिलते दो रास्ते, एक ही उद्गम
से निकल कर, कुछ तलहटी से हो कर
पहुँच जाते हैं अपनी मंज़िल की
ओर, कुछ रास्ते उम्र भर
करते हैं आत्म खोज,
वो बनाते हैं एक
आकाशगंगा
अपने ही
अंदर,
अक्सर नहीं मिलते दो रास्ते, एक ही उद्गम
से निकल कर । कुछ रिश्ते रहते हैं पूरी
तरह से मौन, अपरिभाषित, फिर
भी निभाते हैं बख़ूबी से अपना
किरदार, कुछ लोग बहुधा
मिल कर भी, दिल
से नहीं रखते
कोई भी
सरोकार, फिर भी हम हाथ मिलाते हैं किसी
औपचारिकता के वश, गुज़रते हैं बड़ी
ही ख़ूबसूरती से ज़रा संभल कर,
अक्सर नहीं मिलते दो रास्ते,
एक ही उद्गम से निकल
कर । कुछ रूह उम्र
भर चाहती है
कारागृह,
किसी
के मोहपाश में ख़ुद को बांधे रखना, नहीं
चाहती उससे आज़ाद होना, किसी
एक बिंदु पर वो खो जाते हैं
किसी अरण्य स्रोत की
तरह उत्स विहीन,
उनकी क़िस्मत
में शायद नहीं
होता पुनः
आबाद
होना,
अंतिम पहर उन्हें मिलती है असीम शांति,
ओस की नन्ही बूंदों के साथ पृथ्वी
पर आ, जब वो जाते हैं दूर
तक बिखर, अक्सर
नहीं मिलते
दो रास्ते,
एक ही
उद्गम से निकल कर - -
* *
- - शांतनु सान्याल

11 अक्टूबर, 2022

अंतःस्थ ध्वनि - -

आधी रात, जब तेज़ बारिश रुकी, छत
से उतरती हुई बूंदों का टुप टाप और
अंतःस्थ घड़ी की टिक टिक के
मध्य, ज़िन्दगी मणियों
का गणन करती
रही, वो सभी
चेहरे जो
कल
तक थे बहुत ही चमकीले, धीरे धीरे -
दूर कोहरे में कहीं गुम से हो गए,
अपाहिज भावनाएं फिर भी
उनका अंध - अनुसरण
करती रही, अंतःस्थ
घड़ी की टिक -
टिक के
मध्य,
ज़िन्दगी मणियों का गणन करती - -
रही । काश गुज़रा वक़्त लौट आता ठीक
जैसे लौट आती है दिवाली हर
वर्ष, कभी पहले कभी कुछ
देर से, जल उठते हैं
बुझे हुए सभी
रंग मशाल,
अंतःस्थ
घड़ी
अब ज़रा सी आहट से चौंक जाती है, न
जाने किस पल रुक जाए सांसों का
सफ़र, फिर भी हम टूटते
तारों से कहीं आगे
बढ़ना चाहते
हैं, देखते
हैं एक
टक आकाश को, ठीक उसी तरह बचपन
में कभी देखा था, गुड्डे गुड्डियों का
शहर, एक पिघलता हुआ
अहसास, चीभ में
कहीं ज़रा से
चिपके
हुए,
पिपरमिंट का ठंडा सा स्वाद, ख़्वाब के - -
अबेकस में कहीं, बूंद बूंद चाँदनी
मुझ से मेरा ही हरण करती
रही, अंतःस्थ घड़ी की
टिक - टिक के
मध्य,
ज़िन्दगी मणियों का गणन करती - - - -
* *
- - शांतनु सान्याल










 

07 अक्टूबर, 2022

नव परिधान - -

वो एक दरवाज़ा है जो मुद्दतों से कभी खुला
ही नहीं, बेरंग, ज़र्द, कुहासा रंगी कोई
उतरन, अन्तःस्थल में है एक
विस्तीर्ण मरुद्यान, न
कोई चाबी न ही
कोई कुलूप
से बंधा
हुआ है अंतरतम का द्वार, सिर्फ आगंतुक
का है इंतज़ार, ये वो पांथशाला है जहाँ
हर किसी को मिलता है शरण,
क्या हुआ जो बाहर से
लगता है, बेरंग,
ज़र्द, कुहासा
रंगी कोई
उतरन ।
वो
सभी सीढ़ियां जो ले जाती हैं गहन से - -
गहनतम की ओर, काञ्चन काया
पड़ी रहती है दर्शक विहीन मंच
के उपर एकाकी, निःशब्द
रूह बढ़ जाती है किसी
अज्ञात भोर की
ओर, पड़े
रहते
हैं
कुछ पुष्प गुच्छ दहलीज़ के उपर, थम से
जाते हैं एक ही पल में सभी चिराग़ों
के उष्ण सिहरन, उड़ जाती हैं
तितलियाँ सुदूर कहीं,
छोड़ कर रेशमी
कोष का
उतरन ।
* *
- - शांतनु सान्याल  



06 अक्टूबर, 2022

असमाप्त अंतर्यात्रा - -

 एक सुनसान द्वीप में ज़िन्दगी देखती
है दूर तक एक निःशब्द, ख़ामोशी
का शहर, किनारे की ज़मीं
हज़ार बार टूट कर
भी, विक्षिप्त
लहरों से
नहीं
करती कोई समझौता, चट्टान कभी नहीं
सरकते हैं अपनी जगह से तिल भर,
ज़िन्दगी देखती है दूर तक एक
निःशब्द, ख़ामोशी का
शहर। वक़्त के
थपेड़े सिर्फ़
कुछ
रेत बना सकते हैं लेकिन वजूद को मिटा
सकते नहीं, तुम्हारे निगाह में है अगर
अंतहीन गहराई, कोई भी तिलस्मी
ख़्वाब बरगला सकते नहीं,
चट्टान को दर्द नहीं
होता, वो सब
कुछ
महसूस करता है चिर मौन रह कर,
वो स्थिर हो कर भी अपने अंदर
चलता रहता है उम्र भर,
ज़िन्दगी देखती है
दूर तक एक
निःशब्द,
ख़ामोशी का शहर - -
* *
- - शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past