इक बहाव या कोई मद्धम नशा, ले
जाए मुझे रफ़ता रफ़ता, न
जाने किस अनजानी
राह में, कुछ
पहचाने
कुछ अजनबी से चेहरे, कुछ डूबते -
कुछ उभरते किनारे, दरमियां
अपने है, इक मुसलसल
कोहरा या ज़माने
के हमराह
तुमने भी सीख लिया, मुताबिक़ - -
मौक़ा, रुख़ अपना बदलना,
ग़लत इसमें कुछ भी
नहीं, कोई
नहीं जहान में, जो निभाए क़सम -
उम्र भर के लिए, बस इक
नज़र का धोखा है
अपनापन,
पर्दा उठते ही किरदार बदल जाते हैं,
ये ज़मीं ओ आसमां सब कुछ
रहते हैं अपनी जगह
कायम, मौसम
के लेकिन
हर दौर में तलबगार बदल जाते हैं.
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
abstract-art-6
जाए मुझे रफ़ता रफ़ता, न
जाने किस अनजानी
राह में, कुछ
पहचाने
कुछ अजनबी से चेहरे, कुछ डूबते -
कुछ उभरते किनारे, दरमियां
अपने है, इक मुसलसल
कोहरा या ज़माने
के हमराह
तुमने भी सीख लिया, मुताबिक़ - -
मौक़ा, रुख़ अपना बदलना,
ग़लत इसमें कुछ भी
नहीं, कोई
नहीं जहान में, जो निभाए क़सम -
उम्र भर के लिए, बस इक
नज़र का धोखा है
अपनापन,
पर्दा उठते ही किरदार बदल जाते हैं,
ये ज़मीं ओ आसमां सब कुछ
रहते हैं अपनी जगह
कायम, मौसम
के लेकिन
हर दौर में तलबगार बदल जाते हैं.
* *
- शांतनु सान्याल
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