न जाने किस बियाबां में बरसे हैं
राख रंगी बादल, शाम ढलते
इक अहसास ए पुरसुकूं
सा है दिल को, न
जाने किसने
फिर
छुआ है ख़ामोश दर्द को मेरे, कि
फिर रफ़ता रफ़ता तेरी
मुहोब्बत जवां हो
चली है, हर
सिम्त
में है इक अजीब सा ख़ुश्बुओं में
डूबा इन्क़लाब, फिर किसी
ने कुरेदा है कहीं बुझता
हुआ अंगारा, कि
उड़ चले हैं
हवाओं
के हमराह फिर तुझे पाने की - -
जुस्तजू, या जुगनुओं में
छुपे हैं, कहीं इश्क़
की अनबुझ
चिंगारियां,
फिर
भटकती है रूह, दरमियान ज़मी
ओ आसमान, किसी कोहरे
की मानिंद मुसलसल
वादी दर वादी,
दूर तक !
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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राख रंगी बादल, शाम ढलते
इक अहसास ए पुरसुकूं
सा है दिल को, न
जाने किसने
फिर
छुआ है ख़ामोश दर्द को मेरे, कि
फिर रफ़ता रफ़ता तेरी
मुहोब्बत जवां हो
चली है, हर
सिम्त
में है इक अजीब सा ख़ुश्बुओं में
डूबा इन्क़लाब, फिर किसी
ने कुरेदा है कहीं बुझता
हुआ अंगारा, कि
उड़ चले हैं
हवाओं
के हमराह फिर तुझे पाने की - -
जुस्तजू, या जुगनुओं में
छुपे हैं, कहीं इश्क़
की अनबुझ
चिंगारियां,
फिर
भटकती है रूह, दरमियान ज़मी
ओ आसमान, किसी कोहरे
की मानिंद मुसलसल
वादी दर वादी,
दूर तक !
* *
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