21 फ़रवरी, 2014

अंतर्मन की निगाहें - -

इतनी मुश्किल भी न थी ज़िन्दगी की 
राहें, काश, समझ पातीं उन्हें 
अपनी अंतर्मन की 
निगाहें, कोई 
भी नहीं 
यहाँ बेदाग़ चेहरा, हर शख्स कहीं न -
कहीं ओढ़े है, चेहरे पे इक नया 
चेहरा, ग़ायब या ज़ाहिर, 
हर लब पे है इक 
ख़ामोश 
इश्तहार, ये बात और है कि हम उसे -
कितना पढ़ पाएं, ख़ुद से बाहर  
निकलना नहीं आसां, 
ग़र निकल भी 
आए, तो 
करती है पीछा, रात दिन अपनी ही - -
परछाई, उस हाल में आख़िर 
हम जाएं, तो कहाँ 
जाएं, दिल की 
आवाज़ 
से निपटना है, बहोत ही मुश्किल, ये -
लौट आती हैं हर बार छू कर 
किरदार ए आईना, कि 
अक्स अपना 
ख़ुद से 
छुपाना नहीं मुमकिन, कि घने धुंध में 
भी ये बार बार उभर आएं, काश, 
समझ पातीं उन्हें अपनी 
अंतर्मन की 
निगाहें।

* * 
- शांतनु सान्याल 
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
art by nora kasten

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