30 दिसंबर, 2013

ज़िन्दगी की मानिंद - -

हर बार, न जाने कौन, आखरी पहर
से पहले, बिखेर जाता है रेत
के महल, हर इक रात,
सुबह से कुछ
पहले, मैं
दोबारा बुनता हूँ तेरी सूनी निगाहों -
में कुछ रेशमी ख्वाब, ख़ुश्बुओं
के महीन धागों से बुने
उन ख्वाबों में हैं
मेरे नाज़ुक
जज़्बात,
ये राज़ ए तख़लीक तुझे मालूम भी
है या नहीं, कहना है मुश्किल,
फिर भी, न जाने क्यूँ
ऐसा लगता है
कि तू है
शामिल, मेरी धड़कनों में ज़िन्दगी
की मानिंद - - 
* *
- शांतनु सान्याल

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