20 दिसंबर, 2013

इक क़रारदार - -

वक़्त की अपनी है रस्म वसूली, बचना
आसां नहीं, चेहरे ओ आईने के
दरमियां थे जो क़रारदार,
उभरते झुर्रियों ने
उसे तोड़
दिया,
न तुम हो जवाबदेह, न कोई सवाल हैं --
बाक़ी मेरे पास, इक ख़ामोशी !
जो न कहते हुए कह -
जाए, अफ़साना
ए ज़िन्दगी,
ग़लत
था लिफ़ाफ़े पर लिखा पता या किसी ने -
पढ़ कर ख़त यूँ ही लौटा दिया, नहीं
देखा मुद्दतों से बोगनविलिया
को संवरते, शायद
उसने इस राह
से अब
गुज़रना तक छोड़ दिया,चेहरे ओ आईने-
के दरमियां थे जो क़रारदार,उभरते
झुर्रियों ने उसे तोड़
दिया,

* *
- शांतनु सान्याल    


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