18 दिसंबर, 2013

फिर कभी सही - -

बहोत मुश्किल है, पाना इस भीड़ में
पल दो पल का सुकूं, हर सिम्त
इक रक़ाबत, हर तरफ
इक अजीब सी
बेचैनी,
हर चेहरे में है गोया ग़िलाफ़ ए जुनूं,
न ले अहद, इन परछाइयों में
कहीं, कि ये दरख़्त भी
लगते है जैसे
रूह परेशां,
दिल चाहता तो है, कि खोल दे बंद -
पंखुड़ियों को हौले हौले, लेकिन
न जाने क्यूँ है आज ये
मौसम भी कुछ
बदगुमां,
न झर जाएँ कहीं ये नाज़ुक, वरक़
ए जज़्बात, रात ढलने से पहले,
कुछ तूफ़ानी सा लगे है
फिर ये आसमां,
न चाँद का
पता,
नहीं सितारों की चहल पहल दूर - -
तक, आज रहने भी दे मेरे
हमनशीं, शबनम में
भीगने की आरज़ू
बेइंतहा !

* *
- शांतनु सान्याल


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