22 जुलाई, 2025

मुलाक़ात हो कभी - -

मर्माहत पतंग की डोर ढूंढती

है अंतिम ठिकाना, उस
दरख़्त के शाख से
कभी हमें भी
मिलवाना ।
अनगिनत वेदना समेटे अटूट
है रूहानी पतवार,भीगे
पंख लिए पखेरू को
गंतव्य तक
पहुंचाना ।
इस रास्ते में नहीं बहती कहीं
कोई आकाश गंगा,पत्थरों
के शहर में है ये शीशे
का घर ज़रूर
आना ।
उजाड़ कर दिल का चमन
हरहाल में हैं मुस्कुराए,
शिकायत किसी से
नहीं बियाबां से
है आना
जाना ।
न जाने किस दुनिया की
ख़्वाबिदा बात करते
हो, बहुत मुश्किल
है हक़ीक़त से
बच के निकल
पाना ।
- - शांतनु सान्याल 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 23 जुलाई 2025को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. हक़ीक़त से रूबरू होते ही टूट जाते हैं ख़्वाब लेकिन टूटना ही तो उनकी फ़ितरत है

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