था दर इंतज़ार किसी के लिए मैं
अज़ल ए जहान से, पर्दे की
ओट से देखता रहा वो
शख़्स हर वक़्त,
लेकिन
महरूम रही मेरी रूह उसकी - - -
पहचान से, वो कोई ग़ैर
न था, बल्कि मुझ
में ही रह कर
खेलता
रहा वो मेरे जिस्म ओ जान से - -
भटकती रही मेरी निगाहें,
कभी मंदिर, कभी
मस्जिद,
उलझा रहा मेरा ज़मीर, निशाँ - -
ओ बेनिशाँ के दरमियान,
छलता रहा वो मुझे
मृगतृष्णा की
मानिंद
कभी गुलशन में, कभी तपते हुए
रेगिस्तान से - -
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
tulip beauty
अज़ल ए जहान से, पर्दे की
ओट से देखता रहा वो
शख़्स हर वक़्त,
लेकिन
महरूम रही मेरी रूह उसकी - - -
पहचान से, वो कोई ग़ैर
न था, बल्कि मुझ
में ही रह कर
खेलता
रहा वो मेरे जिस्म ओ जान से - -
भटकती रही मेरी निगाहें,
कभी मंदिर, कभी
मस्जिद,
उलझा रहा मेरा ज़मीर, निशाँ - -
ओ बेनिशाँ के दरमियान,
छलता रहा वो मुझे
मृगतृष्णा की
मानिंद
कभी गुलशन में, कभी तपते हुए
रेगिस्तान से - -
* *
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