उन आख़री लम्हों का हिसाब
न मांग, जब शाख़ से
टूटा था मेरा
वजूद,
इक उम्र यूँ ही गुज़ार दी मैंने
तुझ से जुदा होने में,
किस दर्द का
ज़िक्र
करें यहाँ, पतझर के साथ ही
उठ गए सभी ख़ुश्बुओं
के ख़ेमे अपने
आप,
बहोत मुश्किल है बताना कि
उस गुबार क़ाफ़िले में
कौन था अपना
और कौन
पराया,
हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी है, कि
मैं आज भी हूँ, अकेला
और बेशक कल
भी था तन्हा,
तुम
लाख दोहराओ दास्ताँ ए वफ़ा,
लेकिन ये सच कि यहाँ
कोई नहीं अपना,
सिर्फ़ और
सिर्फ़
हर चीज़ यहाँ, है महज़ नज़रों
का धोखा - -
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
last o' clock
न मांग, जब शाख़ से
टूटा था मेरा
वजूद,
इक उम्र यूँ ही गुज़ार दी मैंने
तुझ से जुदा होने में,
किस दर्द का
ज़िक्र
करें यहाँ, पतझर के साथ ही
उठ गए सभी ख़ुश्बुओं
के ख़ेमे अपने
आप,
बहोत मुश्किल है बताना कि
उस गुबार क़ाफ़िले में
कौन था अपना
और कौन
पराया,
हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी है, कि
मैं आज भी हूँ, अकेला
और बेशक कल
भी था तन्हा,
तुम
लाख दोहराओ दास्ताँ ए वफ़ा,
लेकिन ये सच कि यहाँ
कोई नहीं अपना,
सिर्फ़ और
सिर्फ़
हर चीज़ यहाँ, है महज़ नज़रों
का धोखा - -
* *
- शांतनु सान्याल
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