न आज़मा, सब्र ए इंतहा मेरी,
उम्र भर गुज़रा हूँ मैं नंगे
पांव काँटों भरी
राहों से,
महल से सड़क की दूरी महज़
होती है पलक भर की,
पिघल जाते हैं
ज़ुल्म की
ज़ंजीरें,
कभी न कभी दर्द भरी आहों से,
जिस मरहले पे तू है खड़ा
कोई ज़रूरी नहीं
उसके आगे
न हो
कोई गहरी वादी, होती है बहुत
महलक असर, बेगुनाह
की कराहों में - -
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
scattering bliss
उम्र भर गुज़रा हूँ मैं नंगे
पांव काँटों भरी
राहों से,
महल से सड़क की दूरी महज़
होती है पलक भर की,
पिघल जाते हैं
ज़ुल्म की
ज़ंजीरें,
कभी न कभी दर्द भरी आहों से,
जिस मरहले पे तू है खड़ा
कोई ज़रूरी नहीं
उसके आगे
न हो
कोई गहरी वादी, होती है बहुत
महलक असर, बेगुनाह
की कराहों में - -
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