11 जून, 2021

बंद अलमारी - -

काश ! तुम खोल पाते, महोगनी
से बनी वो अदृश्य अलमारी,
चाबियों का गुच्छा यूँ
तो था तुम्हारे
सामने
लेकिन तुमने कभी कोशिश ही न
की, देखते ही देखते, राख के
ढेर में, वो ढह गई सारी,
महोगनी से बनी
वो अदृश्य
अलमारी।
कभी -
कभी बिजली गुल हो जाना चाहिए,
अंधेरे में ख़ुद से आँख मिचौली
खेलना आना चाहिए, किस
कोण पर जा रुकेगा ये
सत्य का कंपास,
जो घूमता
रहा उम्र
भर,
मायावी बंधनों के आसपास, सब
कुछ है लिपिबद्ध आईने की
साझेदारी, महोगनी
से बनी वो अदृश्य
अलमारी।
वो सभी
संचय
कहने को थे अनमोल, जिन्हें हम
भूल आए कांच के दराज़ों में,
कौन नज़दीक था और
कौन बसा परदेश,
कहना नहीं
आसान,
रहने
दें कुछ अनकही बातें बंद दरवाज़ों
में, न कोई चाहत, न कोई
तक़ाज़ा, सब कुछ तो
पड़ा रह जाएगा
प्लेटफॉर्म
पर
उपेक्षित, जब होगी अंतिम पहर की
तैयारी, काश ! तुम खोल पाते,
महोगनी से बनी वो अदृश्य
अलमारी।

* *
- - शांतनु सान्याल
   

 



13 टिप्‍पणियां:

  1. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।

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  2. सदैव की भांति चिंतनपरक सृजन ।

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  3. रहने
    दें कुछ अनकही बातें बंद दरवाज़ों
    में, न कोई चाहत, न कोई
    तक़ाज़ा, सब कुछ तो
    पड़ा रह जाएगा
    प्लेटफॉर्म
    पर---गहनतम रचना है, चिंतन और ठहरने को विवश करती हुई। खूब बधाई आपको।

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  4. गहन भावों में रचित रचना।
    अदृश्य अलमारियों की भी चाबियाँ होती है बस हम खोलना ही नहीं चाहते कुछ बंद किवाड़ों को।
    बहुत सुंदर सृजन।

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  5. जब होगी अंतिम पहर की
    तैयारी, काश ! तुम खोल पाते,
    महोगनी से बनी वो अदृश्य
    अलमारी। बेहद सुंदर सृजन 👌👌

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