जब अंधकार हो पूर्ण मुखर, खुल जाते
हैं अपने आप बंद आँखों के द्वार,
खिड़कियां हैं खुली अबूझ हवा
पलट रही है एक ही पृष्ठ
को हज़ार बार, सहेज
कर जितना भी
रखें बिखर
जाती
हैं पुरातन स्मृतियां, बेवजह हम दौड़े
चले जा रहे हैं अंधी गुफाओं के
अंदर, समय मिटा चुका
है कब से, सभी शैल
आकृतियां, कभी
था यहाँ कोई
समुद्र तो
रहा
होगा, सम्प्रति कुछ भी नहीं सिवा -
धूसर इतिहास के, कभी नीबू
फूल के गंध में डूब कर,
गहन रात ने चाहा
था उम्र भर का
जुर्माना,
कभी
वो गुज़रते रहे बहुत क़रीब से बिना
किसी आहट ओ एहसास के,
उजाले का उतरन ओढ़
कर उतर रही है ये
ज़िन्दगी, या
सुबह के
पांव
तले अभी तक है अंधेरे की सीढ़ियां,
सुदूर है समुद्र का विस्तृत मुहाना,
पीछे दौड़ती चली आ रही है
विक्षिप्त सी एक नदी,
मध्य मार्ग है एक
मिथक, टूटती
नहीं कभी
पांवों
की बेड़ियाँ - -
* *
- - शांतनु सान्याल
17 जून, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
बहुत सुन्दर।🌻
जवाब देंहटाएंसमय जैसे जैसे बीतता हैं पुराने दिन याद आने लग जाते है मानो कितने अच्छे थे वो दिन भले ही उस समय को हमने सही से न जिया हो और कोसा खूब हो। समय के साथ सब बदल जाता है पर दुख अपनो से बिछड़ने का होता है..
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (18-06-2021) को "बहारों के चार पल'" (चर्चा अंक- 4099) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंवाह क्या बात है ।
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो इस सुंदर ब्लाग के लिए आपको बधाई ।
रचना का आनंद अलग ।
सादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंगुज़रते रहे बहुत क़रीब से बिना
जवाब देंहटाएंकिसी आहट ओ एहसास के,
उजाले का उतरन ओढ़...बहुत ही सुंदर सृजन गहनता की अथाह गहराई लिए।
बार बार पढ़ने को आतुर करता।
हार्दिक बधाई आदरणीय सर।
सादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंशिव रूद्राष्टकम : नमामीशमीशान निर्वाण रूपं लिरिक्स | Namami Shamishan Nirvan Roopam Lyrics
thanks a lot dear friends
जवाब देंहटाएं