29 जून, 2021

ज़िन्दगी का संविधान - -

पुरातन अभिलेख देते हैं दस्तक, विलुप्त
दरवाज़ों का मिलता नहीं कोई भी
नामोनिशान, वही सीलन
भरी ज़िन्दगी, झूलते
हुए चमगादड़ों
की तरह
भीड़
भरी सांध्य लोकल लौट आती है कच्चे
रास्तों से हो कर सुबह के ठिकान,
लेकिन विलुप्त दरवाज़ों का
मिलता नहीं कोई भी
नामोनिशान।
वक्षस्थल
के नीचे
है बहुत दूर तक प्रसारित उम्मीद का
अंतरीप, भूल कर सभी उतार -
चढ़ाव, ये अंधकार के पल
हैं अनमोल, छूना चाहते
हैं सुदूर बहते हुए
अनगिनत
तिलस्मी
द्वीप,
जिसके किनारों में है कहीं उभरा हुआ
पुरसुकून का आसमान, लेकिन
सुबह तक विलुप्त दरवाज़ों
का मिलता नहीं कोई
भी नामोनिशान।
सुबह आती
है रोज़
की तरह ले कर अपने साथ सांसों का
विस्तृत हरित प्रदेश, स्वेद कणों
में पुनः जागते हैं जीने की
अदम्य अभिलाष,
नज़दीक के
आत्मीय
आँखों में उभरते हैं उत्प्रेरक अवशेष, -
फिर खींचता है भीड़ भरा शहर,
मैं निकल पड़ता हूँ उसी
सुरंग के रास्ते
लौटने की
चाह में,
कि फिर दोबारा लौट के पा सकूं सीने
में बसा ज़िन्दगी तलाशने का
संविधान - -

* *
- - शांतनु सान्याल





 
ज़िन्दगी का संविधान चल चित्र रूप में भी देखें - - नमन सह - -


14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी, बहुत संवेदनशील अभिव्यक्ति है यह शांतनु जी। सीधी दिल की तलहटी में उतर गई।

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  2. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।

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  3. बहुत खूबसूरत रचना।
    रोज जीने की चाहत में रोज के काम दोहराए जाते रहते हैं।
    अत्यंत सवेदनशील विषय।

    पुलिस के सिपाही से by पाश
    ब्लॉग अच्छा लगे तो फॉलो जरुर करना ताकि आपको नई पोस्ट की जानकारी मिलती रहे.

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  4. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  5. फिर दोबारा लौट के पा सकूं सीने
    में बसा ज़िन्दगी तलाशने का
    संविधान - -
    भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  6. सुबह आती है रोज़ की तरह ले कर अपने साथ सांसों का
    विस्तृत हरित प्रदेश, स्वेद कणों में पुनः जागते हैं जीने की
    अदम्य अभिलाष,नज़दीक के आत्मीय आँखों में उभरते हैं उत्प्रेरक अवशेष, -फिर खींचता है भीड़ भरा शहर।
    निशब्द! अद्भुत।

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  7. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।

    जवाब देंहटाएं

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