06 जून, 2021

उपनाम - -

बहुत कुछ छूट जाते हैं गंत्वय से
पहले, साथ रह जाता है एक
शून्यता का शहर, और
विस्मृत उपनाम,
दस्तकों के
भीड़
में हम खोजते हैं किसी परिचित
आवाज़ को, दरवाज़ा खोलते
ही, रोज़ की तरह न जाने
कहाँ लौट जाती है
संदली शाम,
साथ रह
जाता
है एक शून्यता का शहर, और -
विस्मृत उपनाम। याद की
काठी अपनी जगह
रहती है यथावत,
अहसास
के
राख बिखरे होते हैं आसपास,
हम तलाशते हैं गुमशुदा
ख़ुश्बुओं को बड़ी
शिद्दत से दूर
तक, वो
नहीं
मिलता कहीं भी, ज़मीं रहती
है चुप अहर्निश, और
विस्मित सा तकता
हुआ रहता है
गोधूलि
का
आकाश, मर्म का देवालय ढूंढ
नहीं पाता है उस अनंत
प्रणयी का नाम,
साथ रह जाता
है एक
शून्यता का शहर, और विस्मृत
उपनाम।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

21 टिप्‍पणियां:

  1. सच ,कुछ याद रहता है ,कुछ भूल जाते हैं !

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  2. मर्म का देवालय ढूंढ
    नहीं पाता है उस अनंत
    प्रणयी का नाम,
    साथ रह जाता
    है एक
    शून्यता का शहर, और विस्मृत
    उपनाम।
    वाह! अद्भुत।
    बहुत सुंदर सृजन।

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  3. विस्मित सा तकता
    हुआ रहता है
    गोधूलि
    का
    आकाश, मर्म का देवालय ढूंढ
    नहीं पाता है उस अनंत
    प्रणयी का नाम,
    साथ रह जाता
    है एक
    शून्यता का शहर, और विस्मृत
    उपनाम।..वाह,उत्कृष्ट रचना ।

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  4. याद की
    काठी अपनी जगह
    रहती है यथावत,
    अहसास
    के
    राख बिखरे होते हैं आसपास,
    हम तलाशते हैं गुमशुदा
    ख़ुश्बुओं को बड़ी
    शिद्दत से दूर
    तक,
    यादें तो साथ रहती ही हैं...बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन
    वाह!!!

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  5. बहुत ही सुंदर सृजन सराहना से परे आदरणीय सर। सच कहा बहुत कुछ छूट जाता है गंतत्व से पहले....
    सादर

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  6. शून्यता का शहर, और
    विस्मृत उपनाम,
    दस्तकों के
    भीड़--बहुत गहरा लेखन और गहरी पंक्तियां।

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  7. शून्यता का शहर, और विस्मृत उपनाम''
    बहुत सुंदर

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  8. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।

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