रेलसेतु के उस पार उतर चली है धूसर
सांझ की छाया, ईशान कोणीय
आकाश फिर गहरा चला है,
कदाचित, अनाहूत वर्षा
भिगो जाए दग्ध
जीवन, बहुत
चाहत से
तकती
है नदी की स्थिर काया, रेलसेतु के -
उस पार उतर चली है धूसर
सांझ की छाया। कोई
उतरता है पुल की
सीढ़ियों से ले
कर कांधे
पर सदियों का अभिशाप, कबाड़ के
भीड़ में जीवन तलाशता है जीने
का सही माप, तुम्हारे पास
है विश्व पर्यटन का
परवाना ए
राहदारी,
जीना
मरना सब कुछ यहाँ, हमारी है - -
लाचारी, पुल के उस पार से
इस पार तक है मुख़्तसर
सफ़र अपना, न कोई
टिकट, न पास
है किराया,
रेलसेतु
के उस पार उतर चली है धूसर सांझ
की छाया।
* *
- - शांतनु सान्याल
14 जून, 2021
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जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (15 -6-21) को "ख़ुद में ख़ुद को तलाशने की प्यास है"(चर्चा अंक 4096) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबस यूँ ही भ्रमण करते हुए यहां चला आया ।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन ।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपकी रचनाओं में बहुत गहरे अर्थ छिपे होते हैं
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआकाश फिर गहरा चला है,
जवाब देंहटाएंकदाचित, अनाहूत वर्षा
भिगो जाए दग्ध
जीवन, बहुत
चाहत से
तकती
है नदी की स्थिर काया---बहुत गहन रचना है।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंअद्भुत सृजनात्मकता।
जवाब देंहटाएंगहन भाव!
अनाहूत वर्षा भिगो जाए दग्ध
जीवन।
गज़ब !!
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत ही लाजवाब सृजन
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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